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गुरुवन्दन-सूत्र
पर यह व्युत्पत्ति ठीक उतरती है । गुरुदेव अपना अलौकिक चमत्कार शुद्ध आत्म-तत्त्व मे ही दिखाते है ।
भगवान् महावीर भी सदाचार के ज्वलत सूर्य-रूप अपने साधु-अनगारो को देव कहते है । भगवती सूत्र मे पाँच प्रकार के देवो का वर्णन है । उनमे चतुर्थ श्र ेणी के देव, धर्मदेव बतलाए है, जो कि मुनि है"गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवतो इरियासमिया० जाव गुत्तबमयारी, से तेणट्ठेण एव वच्चइ धम्मदेवा"
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— भगवती-सूत्र, श० १२, उद्द े० गुरु का गौरव
अहिंसा और सत्य आदि के महान् साधको को जैन-धर्म मे ही नही, वैदिक-धर्म मे भी देव कहा है । कर्मयोगी श्री कृष्ण दैवी सम्पदा का कितना सुन्दर वर्णन करते हैं
अमय सत्त्व-सश द्धिर्ज्ञान-योग-व्यवस्थिति । दान दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥
— गीता १६ । १ ।
स्वाभाव से ही निर्भय रहना, सन्मार्ग मे किसी से भी न डरना, सब को मन, वाणी और कर्म से प्रभयदान देना — अभय है । झूठ, कपट, दभ आदि के मल से अन्तकरण को शुद्ध रखना, सत्व सशुद्धि है । ज्ञान् योग की साधना मे दृढ रहना - ज्ञानयोग व्यवस्थिति है । दान – किसी अतिथि को कुछ देना । दम - इन्द्रियो का निग्रह | यज्ञ - जन सेवा के लिए उचित प्रवृत्ति करना । स्वाध्याय, तप और सरलता ।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग. शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्व मार्दव हीरचापलम् ॥ २ ॥
अहिंसा, सत्य, क्रोध क्रोध न करना, विषय-वासनाओ का त्याग, शान्ति - चित्त की अनुद्विग्नता, प्रपैशुन-चुगली न करना, दया—- सब जीवो को अपने समान समझ कर उन्हे कष्टो से छुडाने का भरसक प्रयत्न करना, लोलुपता - अनासक्ति, मार्दव - कोमलता, लज्जा - अयोग्य कार्य करते हुए लजाना, श्रचपलता - बिना प्रयोजन यो ही व्यर्थ चेष्टा न करना ।