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________________ १७८ सामायिक-सूत्र 'महन्ते-पूज्यन्ते अनेन इति मंगलम' जिसके द्वारा साधक पूज्य–विश्ववन्द्य होते हैं, वह मगल है । सद्गुरु ही साधक को ज्ञानादि गुणो से अलकृत करते हैं, निश्रेयस् का मार्ग बता कर आनन्दित करते हैं, अन्त मे आध्यात्मिक साधना के उच्च शिखर पर चढा कर त्रिभुवन-पूज्य बनाते है, अतः सच्चे मगल वे ही हैं। __ एक प्राचार्य मगल शब्द की और ही व्युत्पत्ति करते है। वह भी बड़ी ही सरस एव भावना-प्रधान है। 'मंगति=हितार्थ सर्पति इति मगलम्' -जो सब प्राणियो के हित के लिए प्रयत्नशील होता है, वह मंगल है। 'मगति दूर दुष्टमनेन अस्माद् वा इति मंगलम्' जिसके द्वारा दुर्दैव, दुर्भाग्य आदि सब सकट दूर हो जाते है वह मगल है। उक्त व्युत्पत्तियो के द्वारा भी गुरुदेव ही सच्चे मगल सिद्ध होते हैं। जिसके द्वारा हित और अभीष्ट की प्राप्ति हो, वही तो मगल है। गुरुदेव से बढ कर हित तथा अभीष्ट की प्राप्ति का साधक दूसरा और कौन होगा ? द्रव्य मगलो की प्रवचना मे न पडकर गुरुदेव-रूप अध्यात्ममगल की उपासना करने से ही आत्मा का कल्याण हो सकता है। अभ्युदय एवं निश्रेयस् के द्वार गुरुदेव ही तो खोल सकते है । ____ 'देवय' का सस्कृत रूप दैवत होता है। दैवत का अर्थ देवता है । मानव, देवताग्रो का आदिकाल से ही पुजारी रहा है । वैदिक-साहित्य तो देवताग्रो की पूजा से ही भरा पड़ा है। परन्तु यहाँ उन देवताओं से मतलब नहीं है। साधारण भोग-विलासी देवतायो के चरणो में मस्तक झुकाने के लिए जैन-धर्म नही कहता। यहाँ तो उत्कृष्ट मानव मे ही देवत्व की उपासना की जाती है। प्राचार्य हरिभद्र के अष्टक प्रकरण की टीका मे श्री जिनेश्वर सूरि कहते है 'दीव्यन्ति स्वरूपे इति देवा ।' -अष्टक-प्रकरण टीका २६ अष्टक अर्थात् जो अपने प्रात्म-स्वरूप मे चमकते है, वे देव है । गुरुदेव
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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