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गुरुवन्दन -सूत्र
कल्योऽत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमाणयति प्रापयतीतिकल्याणः मुक्तिहेतौ - उत्तरा०, टीका, अ० ३ यहाँ कहा गया है कि कल्याण का अर्थ मोक्ष है, क्योकि वही ऐसा पद है जहाँ आत्मा पूर्णतया कर्म - रोग से मुक्त हो कर स्वस्थ होता है
- आत्मस्वरूप मे स्थित होता है । अस्तु, जो कल्य - मोक्ष प्राप्त भी कराए, वह कल्याण होता है । यह अर्थ गुरुदेव के महान् व्यक्तित्व के लिए सर्वथा अनुरूप है । गुरु ही हमे मोक्षप्राप्ति के साधनो के उपदेशक होने के कारण मोक्ष मे पहुँचाने वाले है ।
मगल का अर्थ कल्याण के समान ही शुभ, क्षेम, प्रशस्त एव शिव होता है । परन्तु जब हम व्याकरण की गहराई मे उतरते हैं, तो हमे मगल शव्द की अनेक व्युत्पत्तियो के द्वारा एक-से-एक मनोहर एव गभीर भाव दृष्टिगोचर होते हैं ।
आवश्यक नियुक्ति के ग्राधार पर प्राचार्य हरिभद्र दशवैकालिकसूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम गाथासूत्र की टीका मे लिखते हैं'मग्यते = अधिगम्यते हितमनेन इति मंगलम्' - जि. क को हित की
प्राप्ति हो वह मगल है ।
अथवा
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वादिति मंगलम्, ससारादपनयति'
वाच्य श्रात्मा को ससार के बन्धन से अलग करता छुडाता है, वह मंगल है |
उक्त दोनो व्युत्पत्तियाँ गुरुदेव पर पूर्णतया ठीक उतरती हैं । गुरुदेव के द्वारा ही साधक को आत्म-हित की प्राप्ति होती है और सासारिक काम, क्रोध यादि बन्धनो से छटकारा मिलता है ।
विशेषावश्यक भाष्य के प्रसिद्ध टीकाकार श्री मल्लधारी हेमचन्द्र कहते हैं—
'मड क्यते = श्रलक्रियते आत्मा इति मंगलम्' - विशेषा० ० गा० २३ शिष्यहितावृत्ति
- जिसके द्वारा ग्रात्मा शोभायमान हो, वह मगल है । 'मोदन्ते अनेन इति मंगलम्'
जिससे आनन्द तथा हर्ष प्राप्त हो वह मंगल है |