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________________ १७२ सामायिक सूत्र पज्जुवासामि = उपासना करता हूँ वदामि = वन्दना करता मत्थ एण = मस्तक से वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता सत्कार करता हूँ, सम्मान करता हूँ । Phco भावार्थ भगवन् । दाहिनी ओर से प्रारंभ करके पुन दाहिनी ओर तक आपकी तीन बार प्रदक्षिणा करता हूँ । आप कल्याण - रूप है, मंगल रूप है । आप देवता-स्वरूप हैं, चैत्य स्वरूप यानी ज्ञान स्वरूप हैं । } गुरुदेव । ग्रापकी - मन, वचन और शरीर से - पर्युपासनासेवा - भक्ति करता हूँ । विनय-पूर्वक मस्तक झुका कर आपके चरण कमलो मे वन्दना करता हूँ । विवेचन आध्यात्मिक-साधना के क्षेत्र मे गुरु का पद बहुत ऊँचा है । कोई भी दूसरा पद इसकी समानता नही कर सकता । गुरुदेव हमारी जीवन- नौका के नाविक है । अत वे ससार-समुद्र के काम, क्रोध, मोह आदि भयकर श्रावर्तो मे से हमे सकुशल पार पहुँचाते है । आप जानते हैं- जब घर मे अन्धकार होता है, तब क्या दशा होती है ? कितनी कठिनाइयों का सामना करना पडता है ? चोर और सेठ का, रस्सी और सर्प का विवेक नष्ट हो जाता है । अन्धकार के कारण इतना विपर्यास होता है कि कुछ पूछिए ही नही । सत्असत् का कुछ भी विवेक नही रहता । ऐसी दशा मे, दीपक का कितना महत्त्व है, यह सहज ही समझ मे आ सकता है । ज्यो ही घनान्धकार मे दीपक जगमगाता है, चारो ओर शुभ्र प्रकाश फैल जाता है, तो कितना श्रानन्द होता है ? प्रत्येक वस्तु अपने रूप मे ठीक-ठीक दिखाई देने लगती है । सर्प और रस्सी सेठ और चोर स्पष्टतया सामने झलक उठते है ! जीवन मे प्रकाश की कितनी आवश्यकता है ?
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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