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पूर्व और उत्तर दिशा ही क्यों ?
सामायिक करने वाले को अपना मुख पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर रखना श्रेष्ठ माना गया है । श्री जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमरण लिखते हैं
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पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व दिज्जाsहवा पडिच्छेज्जा ।
- विशेषावश्यक - भाष्य ३४०६
शास्त्रस्वाध्याय, प्रतिक्रमण, और दीक्षा दान आदि धर्मक्रियाए पूर्व और उत्तर दिशा की ओर करने का विधान है । स्थानाग-सूत्र मे भगवान् महावीर ने भी इन्ही दो दिशाओ का महत्व वर्णन किया है। ग्रत सामायिक करते समय सामने यदि गुरुदेव विद्यमान हो तो उनके सन्मुख बैठते हुए अन्य किसी दिशा में भी मुख किया जा सकता है परन्तु अन्य स्थान पर तो पूर्व और उत्तर की ओर मुख रखना ही उचित है ।
जव कभी पूर्व और उत्तर दिशा का विचार चल पडता है, तो प्रश्न किया जाता है कि पूर्व और उत्तर दिशा मे ही ऐसा क्या महत्त्व है, जो कि ग्रन्य दिशाओ को छोड कर इनकी ओर ही मुख किया जाए ? उत्तर मे कहना है कि इस मे शास्त्रपरम्परा ही सब से बडा प्रमाण है। अभी तक आचार्यो ने इस के वैज्ञानिक महत्व पर कोई विस्तृत प्रकाश नही डाला है । हा, अभी-अभी वैदिक विद्वान् सातवलेकर जी ने इस सम्बन्ध मे कुछ लिखा है और वह काफी विचारणीय है ।