________________
मनुप्य और मनुष्यत्व
१५ जाता। हम एक दो बार क्या, अनन्त बार मनुष्य बन चुके है-लम्बे-चौडे सुन्दर, सुरूप, बलवान | पर लाभ कुछ नही हुआ। कभी-कभी तो लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक उठानी पड़ी है। मनुष्य तो चोर भी है, जो निर्दयता के साथ दूसरो का धन चुरा लेता है । मनुष्य तो कसाई भी है, जो प्रतिदिन निरीह पशुओ का खून बहा कर प्रसन्न होता है । मनुष्य तो साम्राज्यवादी राजा लोग भी है, जिनकी राज्यतृष्णा के कारण लाखो मनुष्य बात-की-बात मे रणचण्डी की भेट हो जाते है । मनुष्य तो वेश्या भी है, जो रूप के बाजार मे बैठकर चन्द चॉदी के टुकडो के लिए अपना जीवन बिगाडती है और देश की उठती हुई तरुणाई को भी मिट्टी में मिला देती है। आप कहेगे, ये मनुष्य नही, राक्षस है । हाँ, तो मनुष्य-शरीर बेकार है, कुछ अर्थ नही । हम इतनी बार मनुष्य बन चुके है, जिसकी कोई गिनती नहीं। एक आचार्य अपनी कविता की भाषा मे कहते हैं कि
"हम इतनी वार मनुष्य-शरीर धारण कर चुके है कि यदि उनके रक्त को एकत्र किया जाए, तो असख्य समुद्र भर जाएँ, मास को एकत्र किया जाए, तो चाँद और सूरज भी दव जाएं, हड्डियो को एकत्र किया जाए, तो असख्य मेरु पर्वत खडे हो जाएं।" ।
मनुष्यता की आवश्यकता
भाव यह है कि मनुष्य शरीर इतना दुर्लभ नही, जितनी कि मनुष्यता दुर्लभ है। हम जो अभी ससार-सागर मे गोते खा रहे हैं, इसका अर्थ यही है कि हम मनुष्य तो बने , पर दुर्भाग्य से मनुष्यत्व नही पा सके, जिसके बिना किया-कराया सब धूल मे मिल गया, काता-पीजा फिर से कपास हो गया ।
__मनुष्यता कैसे मिल सकती है ? यह एक प्रश्न है, जिस पर सब-के-सब धर्मशास्त्र एक स्वर से पुकार रहे है। मनुष्य जीवन के दो पहलू है—एक अन्दर की ओर झांकना, दूसरा बाहर की ओर झाँकना । जो जीवन बाहर की ओर झाँकता रहता है, ससार की मोह-माया के अन्दर उलझा रहता है, अपने आत्मतत्त्व को भूल कर केवल देह का ही पुजारी बना रहता है, वह मनुष्य-भव मे मनुष्यता के दर्शन नही कर सकता ।