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सामायिक प्रवचन
मनुष्य का समग्र जीवन इस देह-रूपी घर की सेवा करने मे ही बीत जाता है। यह देह आत्मा के साथ आजकल अधिक-से-अधिक पचास, सौ या सवा सौ वर्ष के लगभग ही रहता है। परन्तु, इतने समय तक मनुष्य करता क्या है ? दिन-रात इस शरीर-रूपी मिट्टी के घरौदे की परिचर्या ही मे लगा रहता है, दूसरे आत्म-कल्याणकारी
आवश्यक कर्तव्यो का तो उसे भान ही नही रहता। देह को खाने के लिए कुछ अन्न चाहिए, लेकिन प्रात काल से लेकर अर्धरात्रि तक तेली के बैल की तरह आँखे बन्द किए, तन-तोड परिश्रम करता है। देह को ढॉपने के लिए कुछ वस्त्र चाहिए, किन्तु सुन्दर-से-सुन्दर वस्त्र पाने के लिए वह व्याकुल हो जाता है। देह के रहने के लिए एक साधारण-सा घर चाहिए, पर कितने ही क्यो न अत्याचार करने पडे, गरीबो के गले काटने पडे, येन केन प्रकारेण वह सुन्दर भवन बनाने के लिए जुट जाता है। साराश यह है कि देह-रूपी घर की सेवा करने मे, उसे अच्छे-से-अच्छा खिलाने-पिलाने मे, मनुष्य अपना अनमोल नर-जन्म नष्ट कर डालता है। घर की सार सँभाल रखना, उसकी रक्षा करना, यह घरवाले का आवश्यक कर्तव्य है, परन्तु यह तो नही होना चाहिए कि घर के पीछे घरवाला अपने आपको ही भुला डाले, वरबाद कर डाले । भला, जो शरीर अन्त मे पचाससौ वर्ष के बाद एक दिन अवश्य ही अपने को छोडने वाला है, उसकी इतनी गुलामी क्यो ? आश्चर्य होता है, मनुष्य की इस मूर्खता पर | जो शरीर-रूपी घर मे रहता है, जो शरीर-रूपी घर का स्वामी है, जो शरीर से पहले भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा, उस अजर, अमर, अनन्त शक्तिशाली आत्मा की कुछ भी सार-सँभाल नही करता। बहुत-सी बार तो उसे, देह के अन्दर कौन रह रहा है, इतना भी भान नही रहता । अत शरीर को ही 'मैं' कहने लग जाता है। देह के जन्म को अपना जन्म, देह के बुढापे को अपना बुढापा, देह की आधि-व्याधि को अपनी प्राधि-व्याधि, देह की मृत्यु को अपनी मृत्यु समझ बैठता है, और काल्पनिक विभीषिकामो के कारण रोनेधोने लगता है। शास्त्रकार इस प्रकार के भौतिक विचार रखने वाले देहात्मवादी को बहिरात्मा या मिथ्यादृष्टि कहते है । मिथ्या सकल्प, मनुष्य को अपने वास्तविक अन्तर्जगत की ओर अर्थात चैतन्य की ओर झाँकने नहीं देते, हमेशा वाह्य जगत् के भौतिक भोग-विलास की ओर ही, उसे उलझाये रखते हैं। केवल वाह्य जगत् का द्रष्टा
सपना जात शरीर को हार कौन रह रहा