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मनुष्य और मनुष्यत्व
आत्मा अपनी स्वरूप स्थितिरूप स्वाभाविक परिणति से तो शुद्ध है, निर्मल है, विकार रहित है, परन्तु कषाय-मूलक वैभाविक परिणति के कारण वह अनादिकाल से कर्म-बन्धन मे जकडी हुई है । जैन दर्शन का कहना है कि " कषाय- जन्य कर्म अपने एक-एक व्यक्ति की अपेक्षा आदि है और अनादिकाल से चले आनेवाले प्रवाह की अपेक्षा अनादि है । यह सबका अनुभव है कि प्रारणी सोते-जागते, उठतेबैठते, चलते-फिरते किसी न किसी तरह की कषाय-मूलक हलचल किया ही करता है । और यह हलचल ही कर्मबन्ध की जड है | त सिद्ध है कि कर्म, व्यक्तिश अर्थात् किसी एक कर्म की अपेक्षा से आदि वाले हैं, परन्तु कर्म-रूप प्रवाह से — परम्परा से अनादि हैं । भूतकाल की अनन्त गहराई मे पहुँच जाने के बाद भी, ऐसा कोई प्रसग नही मिलता, जबकि आत्मा पहले सर्वथा शुद्ध रही हो, और बाद मे कर्म - स्पर्श के कारण अशुद्ध बन गई हो । यदि कर्म-प्रवाह को आदिमान् माना जाए, तो प्रश्न होता है कि विशुद्ध आत्मा पर बिना कारण अचानक ही कर्म-मल लग जाने का क्या कारण है ? बिना कारण के तो कार्य नही होता । और, यदि सर्वथा शुद्ध आत्मा भी, बिना कारण के यो ही व्यर्थ लिप्त हो जाती है, तो फिर तप-जप आदि की अनेकानेक कठोर साधनाओ के बाद मुक्त हुए जीव भी पुन कर्म मे लिप्त हो जाएँगे । इस दशा मे, मुक्ति को एक प्रकार से सोया हुआ ससार ही कहना चाहिए । सोते रहे तब तक तो ग्रानन्द श्रीर जगे तो फिर वही हाय-हाय । मोक्ष मे कुछ काल तक आनन्द मे रहना और फिर वही कर्म चक्र की पीडा सहना 1
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