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शुभ भावना
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चिन्तन करता है, वैसा ही बन जाता है । अत प्रमोद भावना के द्वारा प्राचीन काल के महापुरुषो के उज्ज्वल एव पवित्र गुणो का चिन्तन हमेशा करते रहना चाहिए । गजसुकुमार मुनि की क्षमा, धर्मरुचि मुनि की दया, भगवान् महावीर का वैराग्य, शालिभद्र का दान किसी भी साधक को विशाल आत्मिक शक्ति प्रदान करने के लिए पर्याप्त है।
(३) करुणा भावना-किसी दीन-दुखी को पीडा पाते हुए देख कर दया से गद्गद् हो जाना, उसे सुख-शान्ति पहुंचाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना, अपने प्रिय-से-प्रिय स्वार्थ का बलिदान देकर भी उसका दुख दूर करना, करुणा भावना है । अहिंसा की पुष्टि के लिए करुणा भावना अतीव आवश्यक है। बिना करुणा के अहिंसा का अस्तित्त्व कथमपि नहीं हो सकता । यदि कोई बिना करुणा के अहिंसक होने का दावा करता है, तो समझ लो वह अहिंसा का उपहास करता है। करुणा-हीन मनुष्य, मनुष्य नही, पशु होता है। दुखी को देख कर जिसका हृदय नही पिघला, जिसकी आँखो से सहानुभूति एव प्रेम की धारा नहीं वही, वह किस भरोसे पर अपने को धर्मात्मा समझ सकता है?
(४) माध्यस्थ्य भावना-जो अपने से असहमत हो, विरोधी हो, उन पर भी द्वेष न रखना, उदासीन अर्थात् तटस्थभाव रखना, माध्यस्थ्य भावना है। कभी-कभी ऐसा होता है कि साधक को बिल्कुल ही सस्कार-हीन एव धर्म-शिक्षा ग्रहण करने के सर्वथा अयोग्य, क्षुद्र, क्रूर, निन्दक, विश्वासघाती, निर्दय, व्यभिचारी तथा वक्र स्वभाव वाले मनुष्य मिल जाते है, और पहले-पहल साधक बडे उत्साह-भरे हृदय से उनको सुधारने का, धर्म-पथ पर लाने का प्रयत्न करता है, परन्तु जब उनके सुधारने के सभी प्रयत्न निष्फल हो जाते है, तो वह सहसा उद्विग्न हो उठता है, क्रुद्ध हो जाता है, विपरीताचरण वालो को अपशब्द तक कहने लगता है। भगवान् महावीर मनुष्य की इसी दुर्बलता को ध्यान मे रख कर माध्यस्थ्य भावना का उपदेश करते है कि ससार-भर को सुधारने का केवल अकेले तुम ने ही ठेका नही ले रक्खा है । प्रत्येक प्राणी अपने-अपने सस्कारो के चक्र मे है। जब तक भव-स्थिति का परिपाक नही होता है, अशुभ सस्कार क्षीण होकर शुभ सस्कार जागृत नही होते है, तव तक कोई सुधर नही सकता । तुम्हारा काम तो बस सद्भावना के साथ प्रयत्न करना है।