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सामायिक प्रवचन
कष्ट नही देना चाहता । वह समस्त विश्व को मित्ररूप मे
देखता है
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" मित्रस्य चक्ष ुपा सर्वाणि भूतानि पश्यामहे । "
- यजुर्वेद ३६।१८
अर्थात् में सव जीवो को मित्र की आँखो से देखता हूँ, मेरा किसी से भी वैर-विरोध नही है, प्रत्युत सब के प्रति प्रेम है । भारतीय साहित्य मे मैत्री के ये ही स्वर आपको सर्वत्र गू ँजते हुए सुनाई देंगे, देखिए -
मित्ती मे सव्व भूएसु मैत्त च मे सव्वलोकस्सि ।
( आव० अ० ४) ( धम्मपद )
मेरी विश्व के सब प्राणियो के साथ मंत्री है
)
(२) प्रमोद भावना - गुणवानो को सज्जनो को, धर्मात्मा को देखकर प्रेम से गद्गद हो जाना, मन मे प्रसन्न हो जाना, प्रमोद भावना है। कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य अपने से धन, सम्पत्ति सुख, वैभव, विद्या, वुद्धि अथवा धार्मिक भावना आदि मे अधिक बढे हुए उन्नतिशील साथी को देखकर ईर्ष्या करने लगता है । यह मनोवृत्ति वडी ही दूपित है । जब तक यह मनोवृित्ति दूर न हो जाय, तव तक हिंसा, सत्य यादि कोई भी सद्गुण अन्तरात्मा मे टिक नही सकता । इसीलिए भगवान् महावीर ने ईर्ष्या के विरुद्ध प्रमोद भावना का उपदेश दिया है ।
इस भावना का यह अर्थ नही कि ग्राप दूसरो को उन्नत देखकर किसी प्रकार का ग्रादर्श ही न ग्रहण करें, उन्नति के लिए प्रयत्न ही न करे, और सदा दीन-हीन ही बने रहे। दूसरो के प्रभ्युदय को देखकर यदि अपने को भी वैसा ही ग्रभ्युदय इष्ट हो तो उसके लिए न्याय, नीति के साथ प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए, उनको यादर्श बनाकर दृढता से कर्म-पथ पर अग्रसर होना चाहिए। शास्त्रकार तो यहाँ दुर्बल मनुष्यों के हृदय मे दूसरो के अभ्युदय को देखकर जो ढाह होता है, केवल उसे दूर करने का प्रादेश देते हैं ।
मनुष्य का कर्तव्य है कि वह सदैव दूसरो के गुग्गो की ओर ही अपनी दृष्टि से दोपों की ओर नहीं । गुरणी की ओर दृष्टि रखने मे गुग्गा-गाहकता के भाव उत्पन्न होते है, और दीपा की ओर दृष्टि गने से अन्तकरण पर दोप-ही-दोष छा जाते हैं । मनुष्य जैसा