SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुभ भावना ७३ बनाने मे ही है। इन्द्रियो के भोगो से मेरी मनस्तृप्ति कदापि नही हो सकती। ये काम-भोग तो समुद्र की भाति अन्त हीन है—समुद्र इव हि काम -तैत्ति० ब्रा० २।२।५ जैसे समुद्र के जल का कोई किनारा नही है उसी प्रकार काम-तृप्णा का भी कोई किनारा नही है । सामायिक के पथ पर अग्रसर होने वाले साधक को सुख की सामग्री मिलने पर हर्पोन्मत्त नहीं होना चाहिए और दुख की सामग्री मिलने पर व्याकुल नही होना चाहिए, घबराना नही चाहिए । सामायिक का सच्चा साधक मुख-दुख दोनो को समभाव से भोगता है, दोनो को धूप तथा छाया के समान क्षणभगुर मानता है। सामायिक की साधना हृदय को विशाल बनाने के लिए है। अतएव जब तक साधक का हृदय विश्व-प्रेम से परिप्लावित नही हो जाता, तब तक साधना का सुन्दर रग निखर ही नहीं पाता। हमारे प्राचीन प्राचार्यों ने सामायिक मे समभाव की परिपुष्टि के लिये चार भावनाओं का वर्णन किया हैं-मैत्री, प्रमोद, करुणा, और माध्यस्थ्य। सत्वेषु मैत्री गुरिणषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभाव विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव ।।' -आचार्य अमितगति परमात्मा द्वात्रिंशिका १ (१) मैत्री भावना-ससार के समस्त प्राणियो के प्रति निस्वार्थ प्रेम-भाव रखना , अपनी आत्मा के समान ही सब को सुख-दुख की अनुभूति करनेवाले समझना, मैत्री भावना है। जिस प्रकार मनुष्य अपने किसी विशिष्ट मित्र की हमेशा भलाई चाहता है, जहाँ तक अपने से हो सकता है, समय पर भलाई करता है, दूसरो से उसके लिये भलाई करवाने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार जिस साधक का हृदय मैत्री भावना से परिपूरित हो जाता है, वह भी प्राणीमात्र की भलाई करने के लिए बहुत उत्सुक रहता है, सब को अपनेपन की बुद्धि से देखता है। वह किसी को भी किसी भी तरह का १ तुलना कीजिए मैत्री करुणा-मुदितोपेक्षाणा सुखदु ख पुण्यापुष्यविपयाणा भावनात श्चित्तप्रसादनम् । योगदर्शन १३३
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy