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नमस्कार-सूत्र
१४१ तप आचार, वीर्याचार-इन पाच प्राचारो के पालन मे दिन-रात सलग्न रहते है, जैन परिभाषा के अनुसार वे ही पुरुष या स्त्री, साधु कहलाते है । "साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधव.।"
व्यापक दृष्टि
यह साधु-पद मूल है। प्राचार्य, उपाध्याय और अरिहन्त–तीनो पद इसी साधु-पद के विकसित रूप है। साधुत्व के अभाव मे उक्त तीनो पदो की भूमिका पर कथमपि नही पहुँचा जा सकता।
पचम-पद मे 'लोए' और 'सव्व' शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है। जैन-धर्म का समभाव यहा पूर्णरूपेण परिस्फुट हो गया है । द्रव्यसाधुता के लिए भले ही साम्प्रदायिक दृष्टि से नियत किसी वेष आदि का वन्धन हो, परन्तु भाव-साधुता के लिए, अन्तरग की उज्ज्वलता के लिए तो किसी भी बाह्य रूप का प्रतिबन्ध नही है। भाव-साधता अखिल ससार मे जहाँ भी, जिस किसी भी व्यक्ति मे अभिव्यक्त हो, वह जैन धर्म मे अभिवन्दनीय है। नमस्कार हो लोक मेससार मे, जिस किसी भी रूप मे जो भी भाव साधु हो, उन सबको । कितना दीप्तिमान् महान् व्यापक आदर्श है ।
देव और गुरु
पाचो पदो मे प्रारभ के दो पद देव-कोटि मे आते है, और अन्तिम तीन पद आचार्य, उपाध्याय, साधु गुरु-कोटि मे। __आचार्य, उपाध्याय और साघु तीनो अभी साधक ही है, आत्मविकास की अपूर्ण अवस्था में ही है। अत अपने से निम्नश्रेणी के श्रावक आदि साधको के पूज्य और उच्च श्रेणी के अरिहन्त आदि देवत्व भाव के पूजक होने से गुरु-तत्त्व की कोटि मे है । परन्तु अरिहत और सिद्ध तो अन्तिम विकास पद पर पहुँच गए है, अत वे सिद्ध है, देव हैं। उनके जीवन मे जरा भी राग द्वेप आदिकी स्खलना का, प्रमाद का लेश नही रहा, अत उनका पतन नही हो सकता । अरिहन्त भी एक दृष्टि से सिद्ध-पूर्ण ही है । अनुयोगद्वार सूत्र में उन्हे सिद्ध कहा भी है। अन्तरात्मा की पवित्रता की दृष्टि से कोई अन्तर नही है। अन्तर केवल पूर्वबद्ध अघाति रूप प्रारब्ध कर्मो के भोग का है । अरिहन्तो को सुख दुख आदि प्रारब्ध कर्म का भोग शेप रहता है, जव कि सिद्धो को शरीर-रहित मुक्ति मिल जाने के कारण प्रारब्ध कर्म नही रहते ।