________________
सम्यक्त्व सूत्र
भूमिका को भी पार कर गुण स्थानातीत होता है और सदा के लिए अजर, अमर, देह-मुक्त "सिद्ध' रूप परमात्मा बन जाता है ! सिद्धपरमात्मा आत्मा के विकास का अन्तिम स्थान है। यहाँ आकर वह पूर्णता प्राप्त होती है, जिसमे फिर न कभी कोई विकास होता है और न ह्रास ।
निश्चय और व्यवहार
सम्यक्त्व का क्या स्वरूप है और वह किस भूमिका पर प्राप्त होता है-यह ऊपर के विवेचन से पूर्णतया स्पष्ट हो चुका है। सक्षेप मे, सम्यक्त्व का सीधा-सादा अर्थ किया जाए, तो 'विवेक-दृष्टि' होता है । जड-चेतन का, सत्य-असत्य का विवेक ही जीवन को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करता है। धर्म-शास्त्रो मे सम्यक्त्व के अनेक भेद प्रतिपादन किए है। उनमे मुख्यतया दो भेद अधिक प्रसिद्ध हैं-निश्चय और ध्यवहार । आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न आत्मा की एक विशेष परिणति, जो शेय=जानने योग्य-जीवाजीवादि तत्त्व को तात्त्विक रूप मे जानने की, और हेय=छोडने-योग्य हिंसा, असत्य आदि पापो को त्यागने की, और उपादेय=ग्रहण करने योग्य व्रत, नियम आदि को ग्रहण करने की अभिरुचि-रूप है, वह शुद्ध आत्म-प्रतीति रूप निश्चय सम्यक्त्व है । व्यहार सम्यक्त्व श्रद्धा-प्रधान होता है। अत. कुदेव, कुगुरु, और कुधर्म को त्याग कर सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर दृढ श्रद्धा रखना व्यवहार सम्यक्त्व है। व्यवहार सम्यक्त्व, एक प्रकार से निश्चय सम्यक्त्व का ही बहिर्मुखी रूप है । किसी व्यक्तिविशेप मे साधारण व्यक्तियो की अपेक्षा विशेष गुणो का, किंवा आत्म-शक्ति का विकास देखकर उसके सम्बन्ध मे जो एक सहज प्रानन्द की वेगवती धारा अन्तमे उत्पन्न हो जाती है, उसे श्रद्धा कहते हैं । श्रद्धा मे महापुरुषो के महत्व की प्रानन्द-पूर्ण स्वीकृति के साथसाथ उनके प्रति पूज्य-बुद्धि का भाव भी है। अस्तु, सक्षेप मे निचोड़ यह है कि "प्रात्म दृष्टिरूप निश्चय सम्यक्त्व अन्तरग की चीज है, अत वह मात्र अनुभवगम्य है । परन्तु, व्यवहार सम्यक्त्व की भूमिका देव, गुरु आदि की श्रद्धा पर है, अत. वह बाह्यदृष्टि से भी प्रत्यक्षत सिद्ध है।" , प्रस्तुत सम्यक्त्व-सूत्र मे व्यवहार सम्यक्त्व का वर्णन किया गया