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सामायिक सूत्र
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शुद्ध ग्रात्म स्वरूप की ओर झुकने लगता है, श्रात्मा और परमात्मा में एकता साधने का भाव जागृत करता है । इसके ग्रनन्तर, ज्यो-ज्यो चारित्र मोहनीय कर्म का आवरण, क्रमश शिथिल, शिथिलतर एव शिथिलतम होता जाता है, त्यो त्यो श्रात्मा बाह्य भावो से हट कर अन्तरंग भाव मे केन्द्रित होता जाता है और विकासानुसार विकारो का जय करता है, त्याग प्रत्याख्यान करता है और श्रावकत्व एव साधुत्व के पद पर पहुँच जाता है ।
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'परमात्मा' - नामक तीसरी अवस्था सर्वोच्च अवस्था है । आत्मा जब अपने प्राध्यात्मिक गुरणो का विकाश करते-करते अन्त मे अपने विशुद्ध श्रात्म स्वरूप को पा लेता है, अनादि प्रवाह से निरन्तर चले आने वाले ज्ञानावरण आदि सघन कर्म - प्रावरणो का जाल सर्वथा नष्ट कर देता है, और अन्त मे केवलज्ञान तथा केवल दर्शन की ज्योति के पूर्ण प्रकाश से जगमगा उठता है । तब वह परमात्मा हो जाता है । जैन दर्शन मे यही परमात्मा का स्वरूप है ।
आत्मविकास के सूचक गुणस्थान
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पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्म-श्रवस्था का द्योतक है | चौथे से बारहवे तक के गुणस्थान अन्तरात्म-अवस्था के परिचायक हैं, और तेरहवाँ चौदहवाँ गुणस्थान अरिहन्त रूप परमात्म अवस्था का सूचक है । प्रत्येक साधक बहिरात्म-भाव की अवस्था से निकल कर अन्तरात्मा की ' आदि भूमिका' सम्यक्त्व पर आता है एव सर्वप्रथम यही पर सत्य की वास्तविक ज्योति के दर्शन करता है। यह सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान की भूमिका है । यहाँ से श्रागे बढकर पांचवें गुणस्थान मे श्रावकत्व के तथा छठवें गुरण-स्थान मे साधुत्व के पद पर पहुँच जाता है । सातवें से लेकर बारहवें तक के मध्य गुणस्थान साधुता के विकास की भूमिका रूप हैं । बारहवें गुरणस्थान मे मोहनीय कर्म सर्वथा नष्ट होता है । श्रौर, ज्यो ही मोहनीय कर्म का नाश होता है, त्यो ही तत्क्षरग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय - कर्म का नाश हो जाता है और साधक तेरहवे गुणस्थान मे पहुँच जाता है । तेरहवें गुरणस्थान का अधिकारी पूर्ण वीतराग दशा पर पहुँचा हुआ जीवन् - मुक्त 'जिन' हो जाता है । तेरहवें गुणस्थान मे आयुष्कर्म, वेदनीय श्रादि भोगावलीकर्मो को भोगता हुआ अन्तिम समय मे चौदहवें गुरराणस्थान की