________________
सम्यक्त्व-सूत्र
१५३
दृष्टिकोण बिना सम्यक्त्व के कदापि प्राप्त नही हो सकता । अतएव भगवान महावीर ने अपने पावापुरी के अन्तिम धर्म-प्रवचन मे स्पष्ट रूप से कहा है-'सम्यक्त्व-हीन को ज्ञान नही होता, ज्ञान-हीन को चारित्र नही होता, चारित्र-हीन को मोक्ष नही होता, और मोक्ष-हीन को निर्वाण-पद नही मिल सकतानादसणिस्स नाण,
नाणेण विरणा न हुति चरणगुणा । अगुरिणस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि प्रमोक्खस्स निन्यारण ॥
-उत्तराध्ययन-सूत्रं, २८/३०
आत्मा की तीन दशा
' सम्यक्त्व की महत्ता का वर्णन काफी लम्बा हो चुका है । अब प्रश्न यह उठता है कि यह सम्यक्त्व है क्या चीज ? उक्त प्रश्न के उत्तर मे कहना है कि,सराार मे जितनी भी आत्माएँ है, वे सब तीन अवस्थाप्रो मे विभक्त है- १-बहिरात्मा, २–अन्तरात्मा, और ३-परमात्मा ।
'बहिरात्मा' नामक पहली अवस्था मे आत्मा का वास्तविक शुद्ध स्वरूप, मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के प्रावरण से सर्वथा ढका रहता है। अत. आत्मा निरतर मिथ्या सकल्पो मे फंस कर, पौद्गलिक भोग-विलासो को ही अपना आदर्श मान लेता है, उनकी प्राप्ति के लिए ही अपनी सम्पूर्ण शक्ति का अपव्यय करता है । वह सत्य सकल्पो की ओर कभी झाक कर भी नही देखता । जिस प्रकार ज्वर के रोगी को अच्छे-सेअच्छा पथ्य भोजन अच्छा नही लगता, इसके विपरीत, कुपथ्य भोजन ही उसे अच्छा लगता है, ठीक इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीव का सत्य-धर्म के प्रति द्वष तथा असत्य धर्म के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है । यह बहिरात्मा का स्वरूप है। ', 'अंतरात्मा' नामक दूसरी अवस्था मे, मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का प्रावरण क्षीण हो जाने के कारण, आत्मा क्षयोपशम आदि के रूप मे . सम्यक्त्व के आलोक से आलोकित हो उठता है। यहाँ आकर आत्मा सत्य धर्म का साक्षात्कार कर लेता है, पौद्गलिक भोग-विलासो की ओर से उदासीन-सा होता हुआ