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सामायिक-सूत्र
विवेचन यह सूत्र 'सम्यक्त्व-सूत्र' कहा जाता है । सम्यक्त्व, जैनत्व की वह प्रथम भूमिका है, जहाँ से भव्य प्राणी का जीवन अज्ञान अन्धकार मे से निकलकर सम्यक् आत्मबोध रूप ज्ञान के प्रकाश की ओर अग्रसर होता है। आगे चलकर श्रावक आदि की भूमिकाओ मे जो कुछ भी त्यागवैराग्य, जप-तप, नियम-व्रत आदि साधनाएं की जाती है, उन सबकी बुनियाद सम्यक्त्व ही मानी गई है । यदि मूल मे सम्यक्त्व नहीं है, तो अन्य सब तप आदि प्रमुख क्रियाएँ, केवल अज्ञान कष्ट ही मानी जाती हैं, धर्म नही । अत वे ससार-चक्र का घेरा बढाती ही हैं, घटाती नही।
सम्यग्दृष्टि की मुख्यता
सच्चा श्रावकत्व और साधुत्व पाने के लिए सब से पहली शर्त सम्यक्त्व-प्राप्ति की है। सम्यक्त्व के विना होने वाला व्यावहारिक चारित्र, चाहे वह थोडा है या बहुत, वस्तुत. कुछ है ही नहीं । विना अक के लाखो, करोडो बिन्दियाँ केवल शून्य कहलाती है, गणित में सम्मिलित नही हो सकती । और अक का पाश्रय पाकर शून्य का मूल्य दश गुणा हो जाता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद चारित्र भी निश्चय मे परिणत होकर पूर्णतया उद्दीप्त हो उठता है।
चारित्र का पद तो बहुत दूर है, सम्यक्त्व के अभाव मे तो मनुष्य ज्ञानी होने का पद भी प्राप्त नही कर सकता। भले ही मनुष्य न्याय या दर्शन आदि शास्त्र के गभीर रहस्य जान ले, विज्ञान के क्षेत्र मे हजारो नवीन आविष्कारो की सृष्टि कर डाले, धर्म-शास्त्रो के गहन-से-गहन विपयो पर भाव-भरी टिप्पगियाँ भी लिख छोडे, परन्तु सम्यक्त्व के विना वह मात्र विद्वान् हो मकता है, ज्ञानी नहीं । विद्वान और जानी दोनो के दृष्टि-कोण में वडा भारी अन्तर है । विद्वान् का दृष्टिकोण संसाराभिमुख होता है, जबकि ज्ञानी का दृष्टि-कोरण आत्माभिमुख । फलत मिथ्यादृष्टि विद्वान् अपने जान का उपयोग कदाग्रह के पोपण मे करता है, और सम्यग्दृष्टि जानी सदाग्रह के पोपण मे । यह सदाग्रह का-सत्य की पूजा का निर्मल