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सामायिक सूत्र
है। यहाँ बतलाया गया है कि किस को देव मानना, किस को गुरु मानना और किस को धर्म मानना ? साधक प्रतिज्ञा करता है-अरिहन्त मेरे देव हैं, सच्चे साधु मेरे गुरु हैं, जिन-प्ररूपित तत्त्व रूप सच्चा धर्म मेरा धर्म है।
देव : अरिहन्त
जैन-धर्म में स्वर्ग लोक के भोग-विलासी देवो का स्थान अलौकिक एव आदरणीय रूप मे नही माना है। उनकी पूजा, भक्ति या सेवा करना, मनुष्य की अपनी मानसिक दुर्बलता के सिवा और कुछ नही है। जिन शासन आध्यात्मिक भावना-प्रधान धर्म है, अत यहाँ श्रद्धा और भक्ति के द्वारा उपास्य देव वही हो सकता है, जो दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के पूर्ण विकास पर पहुंच गया हो, ससार की समस्त मोहमाया से मुक्त हो चुका हो, केवलज्ञान तथा केवल-दर्शन के द्वारा भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान तीन काल और तीन लोक को प्रत्यक्ष-रूप मे हस्तामलकवत् जानता-देखता हो । जैन-धर्म का कहना है कि सच्चा अरिहन्त देव वही महापुरुष होता है, जो अठारह दोषो से सर्वथा रहित होता है। अठारह दोष इस प्रकार हैं१ दानान्तराय
२ लाभान्तराय ३ भोगान्तराय
४ उपभोगान्तराय ५ वीर्यान्तराय
६ हास्य-हँसी ७ रति प्रीति
८ अरति अप्रीति 1 ६ जुगुप्साघृणा , १० भय=डर ११ कामवासना
१२ अज्ञान-मूढता १३ निद्राप्रमाद
१४ अविरति त्याग का अभाव १५ राग
१६ द्वष १७ शोक-चिन्ता १८ मिथ्यात्व असत्य निष्ठा ____ अन्तराय का अर्थ विघ्न होता है। जब अन्तराय कर्म का उदय होता है, तब दान देने मे और अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति आदि मे विघ्न होता है। अपनी इच्छानुसार किसी भी कार्य का सम्पादन नहीं कर