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अपने मन मे किसी भी प्रकार का विषम-भाव न लावे, रागद्वेष न
होने दे, किसी को प्रिय प्रिय न माने, हृदय मे हर्ष -शोक न होने दे । अनुकूल और प्रतिकूल दोनो ही स्थितियो को समान माने, दुख से छटने के लिए या सुख प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का अनुचित प्रयत्न न करे, सकट ग्रा पडने पर अपने मन मे यह विचार करे कि "ये पौद्गलिक सयोग-वियोग श्रात्मा से भिन्न है । इन सयोग - वियोगो से न तो ग्रात्मा का हित ही हो सकता है, और न ग्रहित ही ।"
जो साधक उक्त पद्धति से समभाव मे स्थिर रहता है, दो घडी के लिए जीवन-मरण तक की समस्याओं से अलग हो जाता है, वही साधक समता का सफल उपासक होता है, उसी की सामायिक विशुद्धता की ओर अग्रसर होती है ।
प्राचीन ग्रागम अनुयोगद्वार - सूत्र मे तथा प्राचार्य भद्रबाहु कृत आवश्यक नियुक्ति मे 'समभाव' रूप सामायिक का क्या ही सुन्दर वर्णन किया गया है
जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरे य । तस्स सामाइय होइ, इइ केवलि - भासिय ॥ १
- जो साधक त्रस - स्थावर - रूप सभी जीवो पर समभाव रखता है उसी की सामायिक शुद्ध होती है - ऐसा केवली भगवान् ने कहा है ।
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- श्राव० नि० ॥७६६||
जस्स सामाणिओ अप्पा, सजमे नियमे तवे । तस्स सामाइय होइ, इइ केवलि - भासिय ॥
- जिसकी ग्रात्मा सयम मे, तप मे, नियम मे सलग्न हो जाती है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है — ऐसा केवली भगवान् ने
कहा है ।
(क) अनुयोग द्वार १२८ (ख) नियमसार
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- आव० नि० ॥७६८||
(क) अनुयोग द्वार १२७ (ख) नियममार १२७