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सामायिक प्रवचन
समता
सामायिक का मुख्य लक्षण 'समता' है ।' समता का अर्थ है - मन की स्थिरता, रागद्वेष का उपशमन समभाव, एकीभाव, सुख-दुख मे निश्चलता इत्यादि । समता, ग्रात्मा का स्वरूप है, और विषमता पर स्वरूप, यानी कर्मो का स्वरूप । अतएव समता का फलितार्थ यह हुआ कि कर्म-निमित्त से होने वाले राग यादि विषम भावो की ओर से आत्मा को हटाकर स्व-स्वरूप मे रमरण करना ही 'समता' है ।
उक्त 'समता' लक्षरण ही सामायिक का एक ऐसा लक्षण है, जिसमे दूसरे सब लक्षणो का समावेश हो जाता है । जिस प्रकार पुष्प का सार गन्ध है, दुग्ध का सार घृत है, तिल का सार तेल है, इसी प्रकार जिन-प्रवचन का सार 'समता' है । यदि साधक होकर भी समता की उपासना न कर सका, तो फिर कुछ भी नही । जो साधक भोग-विलास की लालसा मे अपनेपन का भान खो बैठता है, माया की छाया मे पागल हो जाता है, दूसरो की उन्नति देखकर डाह से जल-भुन जाता है, मान-सम्मान की गन्ध से गुदगुदा जाता है, जरा से अपमान से तिलमिला उठता है, हमेशा वैर, विरोध, दभ, विश्वासघात आदि दुर्गुणो के जाल में उलझा रहता है, वह समता के प्रादर्श को किसी भी प्रकार नही पा सकता । कपडे उतार डाले, ग्रासन बिछाकर बैठ गये, मुखवस्त्रिका बाध ली, एक दो स्तोत्र के पाठ पढ लिए, इसका नाम सामायिक नही है । ग्रन्थकार कहते है - " साधना करते-करते ग्रनन्त जन्म बीत गए, मुखवस्त्रिका के हिमालय जितने ढेर लगा दिए, फिर भी ग्रात्मा का कुछ कल्याण नही हुआ ।" क्यो नही हुआ ? समता के बिना सामायिक निष्प्राण जो है ।
सच्चे साधक का स्वरूप कुछ और ही होता है । वह समता के गम्भीर सागर मे इतना गहरा उतर जाता है कि विषमता की ज्वालाएँ उसके पास तक नही फटक सकती। कोई निन्दा करे या प्रशसा, गाली दे या धन्यवाद, ताडन - तर्जन करे या सत्कार, परन्तु
१ सामाइयति समभावलक्खरण ।
- विशेषा० भा० गा० ६०५