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सामायिक कब करनी चाहिए ?
आजकल सामायिक के काल के सम्बन्ध मे बडी ही अव्यवस्था चल रही है । कोई प्रात काल करता है, तो कोई सायकाल । कोई दुपहर को करता है, तो कोई रात को । मतलब यह है कि मनमानी कल्पना से जो जब चाहता है, तभी कर लेता है, समय की पाबंदी का कोई खयाल नही रक्खा जाता ।
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अपने-आपको क्रान्तिकारी सुधारक कहने वाले तर्क करते है कि "इससे क्या ? यह तो धर्म - क्रिया है, जब जी चाहे, तभी कर लेनी चाहिए | काल के बन्धन मे पडने से क्या लाभ?" मुझे इस कुतर्क पर बडा ही दुख होता है । भगवान् महावीर ने स्थान-स्थान पर काल की नियमितता पर बल दिया है । प्रतिक्रमण - जैसी धार्मिक क्रियाओ के लिए भी समय के कारण प्रायश्चित्त तक का विधान किया है। सूत्रो के स्वाध्याय के लिए क्यो समय का खयाल रखखा जाता है ? धार्मिक क्रियाए तो मनुष्य को और अधिक नियत्रित करती है, अत इनके लिए तो समय का पाबंद होना अतीव आवश्यक है ।
यह ठीक है कि परिपक्व दशा मे पहुँचा हुआ उत्कृष्ट साधक काल से बद्ध नही होता, उसके लिए हर समय ही साधना का काल है । इसीलिए साधु को यावज्जीवन की सामायिक बतलाई है । साधु का हर क्षण सामायिक स्वरूप होता है । ग्रत यहाँ उत्कृष्ट साधक का प्रश्न नही, प्रश्न है - साधारण साधक का । उसके लिए नियमितता आवश्यक है |