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कायोत्सर्ग-सूत्र
दोष के होने पर साधक द्वारा अपनी इच्छा से लिया जाता है । इस ग्राध्यात्मिक दण्ड का उद्देश्य एव लक्ष्य होता है - आत्म शुद्धि, हृदय-शुद्धि | ग्रात्मा की शुद्धि का कारण पाप मन है, भ्रान्त श्राचरण है । प्रायश्चित्त के द्वारा पाप का परिमार्जन और दोष का शमन होता है, इसीलिए प्रायश्चित्त- समुच्चय श्रादि प्राचीन धर्मग्रन्थो मे प्रायश्चित्त का पाप छेदन, मलापनयन, विशोधन और अपराध-विशुद्धि आदि नामो से उल्लेख किया गया है ।
आगम - साहित्य मे बाह्य और आभ्यन्तर भेद से बारह प्रकार के तप का उल्लेख है । ग्रात्मा पर लगे पाप- मल को दूर करने वाला उपर्युक्त प्रायश्चित्त, ग्राभ्यन्तर तप मे माना गया है । अतएव झालोचना, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग आदि की साधनाएँ प्रायश्चित्त हैं । ग्रागम साहित्य मे दश प्रकार के प्रायश्चित्त का उल्लेख है । उनमे से यहाँ केवल कायोत्सर्ग रूप जो पचम 'व्युत्सगर्ह प्रायश्चित' है, उसका उल्लेख है । व्युत्सर्ग का अर्थ करते हुए ग्राचार्य अभयदेव कहते है कि शरीर की चपलताजन्य चेष्टाओ का निरोध करना व्युत्सर्ग है-'व्युत्सर्गार्ह' यत्कायचेष्टानिरोधत '
— स्थानाग, ६ ठा० टीका
शरीर की क्रिया को रोक कर, मौन रह कर, धर्म ध्यान के द्वारा मन को जो एकाग्र बनाया जाता है, वह कायोत्सर्ग है । उक्त कायोत्सर्ग का श्रात्मशुद्धि के लिए विशेष महत्त्व है। स्पन्दन, दूषरण का प्रतिनिधि है, तो स्थिरत्व शुद्धि का प्रतिनिधि है ।
प्रायश्चित्त: परिभाषाएँ
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प्रायश्चित्त का निर्वचन पूर्वाचार्यों ने बडे ही अनूठे ढंग से किया है । प्राय - बहुत, चित्त-मन अर्थात जीवात्मा को शोधन करने वाली साधना जिसके द्वारा हृदय की अधिक-से-अधिक शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त कहलाता है
'प्रायो बाहुल्येन चित्त = जीव शोधयति कर्ममलिन विमलीकरोति'
- पचाशक विवरण