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सामायिक सूत्र
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बद्ध हाथ घुमा कर आवर्तन करने का नाम ही प्रदक्षिणा है । प्राजकल की उक्त प्रदक्षिणा क्रिया का स्पष्ट रूप आरती उतारने की प्रचलित पद्धति से अच्छी तरह मिलता है । कुछ सज्जन भ्रान्ति-वश अपने हाथो से अपने ही दक्षिण और वाम हस्त समझ बैठते है । फलतः अपने मुख का ही आवर्तन करने लग जाते है । प्रदक्षिणा - क्रिया का वह प्राचीन रूप नही रहा, तो कम-से-कम प्रचलित रूप को तो सुरक्षित रखना चाहिए । इसे भी क्यो नष्ट-भ्रष्ट किया जाए ।
जहाँ तक बौद्धिक चिन्तन का सम्बन्ध है, 'तिक्खुत्तो प्रायाहिण पयाहिण करेमि तक का पाठ मुख से वोलने की कोई आवश्यकता प्रतीत नही होती । इसका सम्बन्ध तो करने से है, बोलने से नही । यह विधि-श का पाठ है । असली पाठ ' वन्दामि' से शुरू होता है ।
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