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गुरुवन्दन सूत्र
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- वन्दन करने से नीचगोत्र कर्म का क्षय होता है, उच्च गोत्र का अभ्युदय होता है, सौभाग्य लक्ष्मी का उपार्जन किया जाता है, प्रत्येक मनुष्य सहर्ष - बिना आनाकानी के आज्ञा स्वीकार करने लगता है, और वह दाक्षिण्यभाव - श्र ेष्ठ सभ्यता को प्राप्त होता है ।
भगवान् महावीर का उपर्युक्त कथन पूर्णतया सत्य है । राजा श्रेणिक ने भक्तिभाव-पूर्वक मुनियों को वन्दन करने के कारण छह नरक के सचित पाप नष्ट कर डाले थे, यह ऐतिहासिक घटना जैनइतिहास मे सुप्रसिद्ध है । आजकल के भक्तिभावना शून्य मनुष्य वन्दन का क्या महत्त्व समझ सकते है ? अब तो उष्ट्र वन्दनाए होती है । क्या मजाल जरा भी सिर झुक जाए | बहुत से सज्जन एक इ च भी शरीर को नही नमायेंगे, केवल मुख से 'दडवत्' या 'पाँव लगो' कह देगे, और समझ लेंगे कि बस वन्दना का बेडा पार कर दिया |
वंदन : द्रव्य और भाव
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श्रागम - साहित्य मे वन्दना के दो प्रकार बताए हैं- द्रव्य श्रीर भाव । दो हाथ, दो पैर और एक मस्तक, शरीर के इन पाँच गो से उपयोग शून्य वन्दन करना द्रव्यवन्दन है । और इन्ही पाँच अगो से भाव सहित विशुद्ध एव निर्मल मन के द्वारा उपयोग सहित वन्दन करना भाव-वन्दन है। भाव के बिना द्रव्य व्यर्थ है, उसका प्राध्यात्मिक जीवन मे कोई अर्थ नही ।
वन्दन - विधि
मूल-पाठ मे जो प्रदक्षिणा शब्द आया है, उसका क्या भाव है ? उत्तर मे कहना है कि प्राचीनकाल मे तीर्थंकर या गुरुदेव समवसरण श्रर्थात् सभा के ठीक बीच मे बैठते थे । अत आगन्तुक भगवान् के या गुरु के चारो ओर घूम कर, फिर सामने ग्राकर, पचाग नमाकर वन्दन करता था । गुरुदेव के दाहिने हाथ से घूमना शुरू किया जाता था । अत प्रदक्षिरण प्रदक्षिणा होती थी । प्रदक्षिरणा का यह क्रम तीन बार चलता था । और प्रत्येक प्रदक्षिणा की समाप्ति पर वन्दन होता था । दुर्भाग्य से, वह परम्परा आज विच्छिन्न हो गयी है । अत अब तो गुरुदेव के दाहिनी ओर से बाई ओर तीन बार प्रजिल