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सामायिक सूत्र अत साक्षात् भगवान् को वन्दना करते समय उनको उनकी ही मूर्ति के सदृश बताना, कैसे उचित हो सकता है ? अस्तु, लोक-प्रचलित उपमा देना ही यहाँ अभीष्ट है।
उक्त दो अर्थों के अतिरिक्त, 'चैत्य' शब्द के कुछ और भी अर्थ किए जाते हैं । आचार्य अभयदेव स्थानाग सूत्र की टीका मे लिखते हैं कि 'जिनके देखने से चित्त मे पालाद उत्पन्न हो, वे चैत्य होते है___ 'चित्ताह्लादकत्वाद्वा चैत्या' ।
-स्थानांगटीका ४/२ यह अर्थ भी यहाँ प्रसगानुकल है। गुरुदेव के दर्शन से किस भक्त के हृदय मे आलाद उत्पन्न नहीं होता ?
राजप्रश्नीयसूत्र मे उक्त पाठ पर टीका करते हुए सुप्रसिद्ध पागमिक विद्वान् प्राचार्य मलयगिरि ने एक और ही विलक्षण एव भावपूर्ण अर्थ किया है। उनका कहना है कि चैत्य वह है जो मन को सुप्रशस्त, सुन्दर, शान्त एव पवित्र बनाए
___चत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वाद् ।'
-राज० १८ कण्डिका, सूर्याभदेवताधिकार यह अर्थ भी यहाँ पूर्णतया सगत है। हमारे वासना-कलुषित अप्रशस्त मन को प्रशस्त बनाने वाले शुद्ध चैत्य गुरुदेव ही तो है। उनके अतिरिक्त और कौन है, जो हमारे मन को प्रशस्त कर सके ?
वंदना का महान् फल
अन्त मे, पुन वदामि' शब्द पर कहना है कि अपने महोपकारी गुरुदेव के प्रति वन्दना-क्रिया साधक जीवन की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण क्रिया है । अपने अभिमान को त्याग कर गद्गद् हृदय से साधक गुरु के चरणो मे स्वय को विनय-पूर्वक अर्पण करता है, तो आत्मा मे वह अलौकिक ज्ञान-प्रभा विकसित होती है, जो साधक को अध्यात्म पद के ऊँचे शिखर पर पहुंचा देती है । भगवान् महावीर ने कहा है
"वदणएण जीवे नीयागोय कम्म खवेइ, उच्चागोय कामं निबधइ, सोहग्गं चण अप्पडिहय आणाफल निवत्त इ, दाहिणभावं च जणयइ ।"
--उत्तरा०, २६/१०