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________________ १८ सामायिक-प्रवचन प्रात्माएँ, जो सत्यासत्य का विवेक प्राप्त कर अपने जीवन मे मनुष्यता का विकास करते है जो कर्म-बन्धनो को काट कर पूर्ण प्राध्यात्मिक स्वतन्त्रता स्वय प्राप्त करते है और दूसरो को भी प्राप्त कराते है, जो हमेशा करुणा की अमृत-धारा से परिप्लावित रहते है, और समय पाने पर ससार की भलाई के लिए अपना तन-मन-धन आदि सर्वस्व निछावर कर डालते है, अतएव उनका जीवन यत्र-तत्र-सर्वत्र उन्नत-ही उन्नत होता जाता है, पतन का कही नाम ही नहीं मिलता। हाँ, तो जैन-धर्म मनुष्य-शरीर की महिमा नही गाता है, वह महिमा गाता है, मनुष्यत्व की। भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन मे यही कहा है "मारणम्स खु मुदुल्लह ।" -उत्तराध्ययन २०१११ अर्थात् 'मनुष्यो । मनुष्य होना बडा कठिन है। भगवान् की वाणी का प्राशय यही है कि मनुष्य का शरीर तो कठिन नही, वह तो अनन्त वार मिला है और मिल जाएगा, परन्तु आत्मा में मनुष्यता का प्राप्त होना ही दुर्लभ है। भगवान ने अपने जीवन-काल मे भारतीय जनता के इसी सुप्त मनुष्यत्व को जगाने का प्रयत्न किया था। उनके सभी प्रवचन मनुष्यता की ज्योति से जगमगा रहे है। अव आप यह देखिए कि भगवान मनुष्यत्व के विकास का किस प्रकार वर्णन करते है। . * :
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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