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मनुष्यत्व का विकास
जैन धर्म के अनुसार मनुष्यत्व की भूमिका चतुर्थ गुणस्थान अर्थात् सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ होती है । सम्यग्दर्शन का अर्थ है'सत्य के प्रति दृढ निष्ठ ।' हाँ, तो सम्यग्दर्शन मानव-जीवन की बहुत बडी विभूति है, बहुत बडी श्राध्यात्मिक उत्क्रान्ति है | अनादि काल से अज्ञान-अन्धकार मे पडे हुए मानव को सन्य सूर्य का प्रकाश मिल जाना कुछ कम महत्व की चीज नही है । परन्तु मनुष्यता के पूर्ण विकास के लिए इतना ही पर्याप्त नही है । ग्रकेला सम्यग्दर्शन तथा सम्यगदर्शन का सहचारी सम्यग्ज्ञान - सत्य की अनुभूति, ग्रात्मा को मोक्ष पद नही दिला सकते, कर्मों के बन्धन से पूर्णतया नही छडा सकते । मोक्ष प्राप्त करने के लिए केवल सत्य का ज्ञान अथवा सत्य का विश्वास कर लेना ही पर्याप्त नही है, इसके साथ सत्य के सम्यग् आचरण की भी बडी भारी आवश्यकता है ।
जैन-धर्म का ध्रुव सिद्धान्त है
ना किरियाहि मोक्खो
ज्ञान और क्रिया
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-- विशेपा० भा० गा० ३
अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनो मिलकर ही ग्रात्मा को मोक्ष-पद का अधिकारी बनाते है । भारतीय दर्शनो मे न्याय, साख्य, वेदान्त आदि कितने ही दर्शन केवल ज्ञान - मात्र से मोक्ष मानते है, जबकि