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सामायिक सूत्र
गया है । दोनो साधनाओ के बाद, यह पुन तीसरी बार भक्तहृदय मे चतुर्विंशतिस्तव - सूत्र के द्वारा भक्ति-सुधा की वर्षा करने का विधान है । जैन समाज मे चतुर्विंशतिस्तव को बहुत अधिक महत्त्व प्राप्त है । वस्तुत 'लोगस्स' भक्ति-साहित्य की एक अमर रचना है । इसके प्रत्येक शब्द मे भक्ति-भाव का प्रखड स्रोत छिपा हुग्रा है । अगर कोई भक्त, पद-पद पर भक्ति भावना से भरे हुए अर्थ का रसास्वादन करता हुआ, उक्त पाठ को पढे, तो वह श्रवश्य ही प्रानन्द-विभोर हुए विना नही रहेगा। जैन साधना में सम्यगदर्शन का वडा भारी महत्त्व है । और वह सम्यग्दर्शन किस प्रकार अधिकाधिक विशुद्ध होता है ? वह विशुद्ध होता है, चतुर्विंशतिस्तव के द्वारा-'चउदीसत्यएर दसणविसोहि जणयइ ।'
- उत्तराध्ययन २९, ६
चतुर्विंशतिस्तव के द्वारा दर्शन की विशुद्धि होती है ।
भगवत्स्मरण : श्रद्धा का दल
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ग्राज ससार अत्यधिक त्रस्त, दुखित एव पीडित है । चारो मोर क्लेश एव कष्ट की ज्वालाएँ धधक रही है; और बीच मे ग्रवरुद्ध मानव प्रजा झुलस रही है। उसे अपनी मुक्ति का कोई मार्ग प्रतीत नही होता। ऐसी अवस्था मे सरल भावेन सतो के द्वार खटखटाये जाते है, और अपने रोने रोये जाते हैं । बालक, वूढे, युवक और स्त्रिया, सभी प्रार्थना के लिए कातर है । सन्त उन्हे हमेशा से एक ही उपाय बताते चले आए हैं- भगवान् का नाम, धौर वस नाम भगवान् के नाम मे ग्रसीम शक्ति है, ग्रपार वल है, जो चाहो सो पा सकते हो, आवश्यकता है, श्रद्धा की, विश्वास की । विना श्रद्धा एव विश्वास के कुछ नही होता । लाखो जन्म बीत जाएँ, तव भी आपको कुछ नही मिलेगा, केवल प्रभाव के लौह-द्वार से टकरा कर लौट ग्रायोगे । यदि श्रद्धा और विश्वास का वल लेकर ग्रागे वढोगे, तो सम्पूर्ण विश्व की निधियों आपके श्रीचरणो मे विखरी पाएँगी ।
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एक कहानी है । विद्वानो की सभा थी । एक विद्वान मुट्ठी बन्द किए उपस्थित हुए । एक ने पूछा- मुट्ठी मे क्या है ? उत्तर मिलाहाथी । दूसरे ने पूछा- उत्तर मिला- घोडा। तीसरे ने पूछा- उत्तर मिला - गाय | विद्वान ने किसी को भैंस तो किसी को सिंह, किसी को