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________________ चतुर्विशतिस्तव-सूत्र २१३ चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ ५ ॥ कित्तिय-वदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। प्रारुग्ग-बोहिलाम, समाहि-वरमुत्तम दितु ॥ ६ ॥ चदेसु निस्सलयरा, आइच्चेसु अहिय पयासयरा । सागरवरगभीरा, सिद्धा सिद्धि मन दिसतु ॥ ७ ॥ शब्दार्थ [१] लोगस्स=सम्पूर्ण लोक के पउमप्पह पद्मप्रभ उज्जोयगरे=उद्योत करने वाले सुपास-सुपाव धम्मतित्थयरे धर्मतीर्थ के कर्ता च और जिणे राग-द्वेष के विजेता चदप्पह= चन्द्रप्रभ अरिहते=अरिहन्त जिण जिनको घउवीसपि=चौवीसो ही वदे=वन्दना करता हूँ केवली=केवल ज्ञानियो का [३] फित्तइस्स-कीर्तन करूँगा सुविहि=सुविधि [२] च=अथवा उसभऋपभदेव पुप्फदतपूष्पदत च=और च=और अजिय =अजित को सीअल शीतल वदे=वन्दन करता हूँ सिज्जस=श्रयास संभव सभव वासुपुज्ज-वासुपूज्य च-नौर च=और अभिणदण=अभिनन्दन विमल=विमल च=और अण त=अनन्त सुमई=सुमति को जिण=जिन
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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