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सामायिक प्रवचन
रूप का परिवर्तन होता रहता है, परन्तु मूल-स्थिति का कभी भी सर्वथा नाश नही होता है । मूल-स्थिति का अर्थ 'द्रव्य' है।"१
चैतन्याद्वैत
चैतन्याद्वैतवादी वेदान्त के कथनानुसार-"विश्व केवल चैतन्यमय ही है।" यह जैन धर्म को स्वीकार नही। यदि जगत् की उत्पत्ति से पहले केवल एक परब्रह्म चैतन्य ही था, जड अर्थात् प्रकृति नामक कोई दूसरी वस्तु थी ही नही, तो फिर यह नानाप्रपचरूप जगत कहाँ से आगया ? शुद्व ब्रह्म मे तो किसी भी प्रकार का विकार नही आना चाहिए ? यदि माया के कारण विकार आ गया है, तो वह माया क्या है ? सत् या असत् ? यदि सत् है, अस्तित्वरूप है तो अद्वैतवाद-एकत्ववाद कहाँ रहा ? ब्रह्म और माया, द्वैत न हो गया ? यदि असत् है, नास्तित्वरूप है तो वह शश-शृङ्ग अथवा आकाश-पुष्प के समान अभाव-स्वरूप ही होनी चाहिए। फलत वह शुद्ध परब्रह्म को विकृत कैसे कर सकती है ? जो वस्तु ही नही, अस्तित्वरूप ही नहीं, वह क्रियाशील कैसे ? कर्त्ता तो वही बनेगा, जो भावस्वरूप होगा, क्रियाशील होगा। यह एक ऐसी प्रश्नावली है, जिसका वेदान्त के पास कोई उत्तर नहीं ।
जड़ाद्वैत
अव रहा जडाद्वैतवादी चार्वाक अर्थात् नास्तिकवादी विचार, जो यह कहता है कि "ससार केवल प्रकृति-स्वरूप ही है, जडरूप ही है, उसमे आत्मा अर्थात् चैतन्य नाम का कोई दूसरा पदार्थ किसी भी रूप मे नही है।"
जैन धर्म का इसके प्रति भी तर्क है कि "यदि केवल प्रकृति ही है, प्रात्मा है ही नहीं, तो फिर कोई सुखी, कोई दुखी, कोई क्षमाशील, कोई त्यागी, कोई भोगी, यह विचित्रता क्यो ? जड प्रकृति को तो सदा एक जैसा रहना चाहिए । दूसरे, प्रकृति तो जड है, उसमे भले-बुरे का ज्ञान कहाँ ? कभी किसी जड ईट या पत्थर
१ भगवनी मून, शतक • उद्देशक १