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सामायिक प्रवचन
(१४) पैशुन्य-किसी भी मनुष्य के सम्बन्ध मे चुगली खाना, इधर की बात उधर लगाना, नारदवृत्ति अपनाना 'पैशुन्य है।।
(१५) पर-परिवाद-किसी की उन्नति न देख सकने के कारण उसकी झूठी-सच्ची निन्दा करना, उसे वदनाम करना 'पर-परिवाद' है। पर-परिवाद के मूल मे डाह का विष-अकुर छुपा हुआ रहता है।
(१६) रति-अति-अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को भूल कर जब मनुष्य पर-भाव मे फँसता है, विपय भोगो मे आनन्द मानता है, तव वह अनुकूल वस्तु की प्राप्ति से हर्ष तथा प्रतिकूल वस्तु की प्राप्ति से दु ख अनुभव करता है, इसका नाम 'रति-अरति' है। रति-अरति के चगुल में फंसा रहने वाला व्यक्ति वीतराग भावना से सर्वथा पराड मुख हो जाता है ।
(१७) माया-मृषा--कपट-सहित भूठ बोलना । अर्थात् इस तरह चालाकी से बाते करना या ऐसा लाग-लपेट का व्यवहार करना कि जो प्रकट मे तो सत्य दिखाई दे, परन्तु, वास्तव मे झूठ हो । जिस सत्याभास-रूप असत्य को सुनकर दूसरा व्यक्ति उसे सत्य मान ले तथा नाराज न हो, वह 'माया-मृषा' है। आजकल जिसे पॉलिसी कहते है, वही शास्त्रीय परिभाषा मे 'माया-मृषा' है। यह पाप असत्य से भी भयकर होता है। आज के युग मे इस पाप ने इतने पॉव पसारे है कि कुछ कह नहीं सकते ।
(१८) मिथ्यादर्शन शल्य-तत्त्व मे अतत्त्व-बुद्धि और अतत्त्व मे तत्त्व-बुद्धि रखना, जैसे कि देव को कुदेव और कुदेव को देव, गुरु को कुगुरु और कुगुरु को गुरु, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म, जीव को जड और जड को जीव मानना 'मिथ्यादर्शन शल्य' है। मिथ्यात्व समस्त पापो का मूल है । आध्यात्मिक प्रगति के लिए मिथ्यात्त्व के विष-वृक्ष का उन्मूलन करना अतीव आवश्यक है।
__ ऊपर अठारह पापो का उल्लेख मात्र स्थूल दृष्टि से किया गया है । सूक्ष्म दृष्टि से तो पापो का वन इतना विकट एव गहन है कि इसकी गणना ही नही हो सकती । मन की वह प्रत्येक तरग, जो आत्माभिमुख न होकर विषयाभिमुख हो, ऊर्ध्वमुखी