________________
अठारह पाप
५५
शब्दो का प्रयोग कर डालता है, जिन्हे सुनकर दूसरे को बहुत दुख होता है, और दूसरे के हृदय मे प्रतिहिंसा की भावना जागृत हो जाती है।
(८) माया-अपने स्वार्थ के लिए दूसरो को ठगने या धोका देने की जो चेष्टा की जाती है, उसे 'माया' कहते है। माया के कारण दूसरे प्राणी को कष्ट मे पडना पडता है, अत 'माया' भयकर पाप है।
____(6) लोभ-हृदय मे किसी भी भौतिक पदार्थ की अत्यधिक चाह रखने का नाम 'लोभ' है। लोभ ऐसा दुर्गुण है कि जिसके कारण सभी पापो का आचरण किया जा सकता है। दशवैकालिकसूत्र ८।३८ मे क्रोध, मान और माया से तो एक-एक सद्गुण का ही नाश बतलाया गया है, परन्तु लोभ को सभी सद्गुणो का नाश करने वाला बतलाया गया है-लोभी सव्वविरणासपो ।
(१०) राग-किसी भी पदार्थ के प्रति मोहरूप-आसक्तिरूप आकर्षण होने का नाम 'राग' है । अथवा पौद्गलिक-सुख की अभिलाषा को भी राग कहते है। वास्तव मे कोई भी भौतिक वस्तु आत्मा की अपनी नहीं है, हम तो मात्र प्रात्मा है और ज्ञानादि गुण ही केवल अपने है । परन्तु, जब हम किसी बाह्य वस्तु को अपनी
और मात्र अपनी ही मान लेते है, तब उस वस्तु के प्रति राग होता है । और जहाँ राग है, वहाँ सभी अनर्थ सभव है।
(११) द्वष-अपनी प्रकृति के प्रतिकूल कटु बात सुनकर या कोई कार्य देखकर जल उठना, 'दुष' है। द्वेष होने पर मनुष्य अधा हो जाता है । अत वह जिस पदार्थ या प्राणी को अपने लिए बुरा समझता है, झटपट उसका नाश करने के लिए तैयार हो जाता है, अपने विचारो का उचित सन्तुलन खो बैठता है।
(१२)कलह-किसी भी अप्रशस्त सयोग के मिलने पर कुढ कर लोगो से वाग्युद्ध करने लगना 'कलह' है। कलह से अपनी आत्मा को भी परिताप होता है, और दूसरो को भी । कलह करने वाला व्यक्ति, कही भी शाति नही पा सकता।
(१३) अभ्याख्यान-किसी भी मनुष्य पर कल्पित बहाना लेकर झूठा दोषारोपण करना, मिथ्या कलक लगाना 'अभ्याख्यान' है।