________________
नमस्कार-सूत्र
१४३ "अहमाराधक एते च अर्हदादय प्राराध्या, इत्याराध्याराधक-विकल्परूपो द्वतनमस्कारो भण्यते। रागाद्यपाधि-विकल्प-रहितपरमसमाधि-बलेनात्मन्येव आराध्याराधकभाव पुनरद्व तनमस्कारो भण्यते ।"
-प्रवचनसार १५ तात्पर्य-वृत्ति
नमस्कार अपने आपको
अद्वैत नमस्कार की साधना के लिए साधक को निश्चय दृष्टिप्रधान होना चाहिए । जैन-धर्म का परम लक्ष्य निश्चय दृष्टि ही है। हमारी विजय-यात्रा बीच मे ही कही टिक रहने के लिए नही है। हम तो धर्म-विजय के रूप मे एक-मात्र अपने आत्म-स्वरूप रूप चरम लक्ष्य पर पहुचना चाहते हैं । अत नवकार मन्त्र पढते हुए साधक को नवकार के पाच महान् पदो के साथ अपने-आपको सर्वथा अभिन्न अनुभव करना चाहिए। उसे विचार करना चाहिए—मैं मात्र आत्मा हूँ, कर्म-मल से अलिप्त हूँ। यह जो कुछ भी कर्म-बन्धन है, मेरी अज्ञानता के कारण ही है | यदि मैं अपने इस अज्ञान के परदे को, मोह के आवरण को दूर करता हुआ आगे बढू और अन्त मे इसे पूर्ण रूप से दूर कर दूं, तो मैं भी क्रमश साधू हूँ, उपाध्याय हूँ, प्राचार्य हूँ, अरिहन्त हूँ और सिद्ध हूँ। मुझ मे और इनमे भेद ही क्या रहेगा? उस समय तो मेरा नमस्कार मुझे ही होगा न ? और अव भी जो मैं यह नमस्कार कर रहा हूँ, वह गुलामी के रूप में किसी के आगे नहीं झुक रहा हूँ, प्रत्युत प्रात्मगुणो का ही आदर कर रहा हूँ, अत एक प्रकार से मैं अपने-आपको ही नमन कर रहा हूँ । जैन शास्त्रकार जिस प्रकार भगवती-सूत्र आदि में निश्चय-दृष्टि की प्रमुखता से आत्मा को ही सामायिक कहते है, उसी प्रकार आत्मा को ही पच परमेष्ठी भी कहते है । अत निश्चय नय से यह नमस्कार पाच पदो को न होकर अपने-आप को ही होता है। इस प्रकार निश्चय दृष्टि की उच्च भूमिका पर पहुँच कर जैन-धर्म का तत्त्व-चिन्तन, अपनी चरम-सीमा पर अवस्थित हो जाता है। अपनी आत्मा को नमस्कार करने की भावना के द्वारा अपने आत्मा की पूज्यता, उच्चता, पवित्रता और अन्ततोगत्वा परमात्मरूपता ध्वनित होती है। जैनधर्म का गभीर घोष है कि 'अपनी श्रात्मा ही अपने भविष्य का निर्माता है, अखण्ड भाव-शान्ति का भण्डार है, और शुद्ध परमात्म-रूप है"अप्पा सो परमप्पा"।