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सामायिक सूत्र
यह बाह्य नमस्कार आदि की भूमिका तो मात्र प्रारम्भ का मार्ग है । इसकी पूर्णता निश्चय भाव पर पहुँचने मे ही है, अन्यत्र नही । यह जो कुछ भी मैं कह रहा हूँ, केवल मेरी मति - कल्पना नही है । इस प्रकार के अद्वैत नमस्कार की भावना का अनुशीलन कुछ पूर्वाचार्यो ने भी किया है । एक आचार्य कहते है -
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नमस्तुभ्य नमस्तुभ्य, नमस्तुभ्य नमोनम ! नमो मह्य नमो मह्य, नमो मह्य नमोनम !! जैन ससार के सुप्रसिद्ध मर्मी सत श्री ग्रानन्दघन जी भी एक जगह भगवत्स्तुति करते हुए वडी ही सुन्दर एवं सरस भाव-तरग मे कह रहे है
हो हो हूँ मुझने नमू, नमो मुझ नमो मुझ रे ! श्रमित फलदान दातारनी, जेहने भेंट थई तुझ रे ||
नमस्कारपूजा द्रव्य और भाव
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नवकार मंत्र के पाँचो पदो मे सर्वत्र यादि मे वोला जाने वाला 'नमो' पद पूजार्थक है । इसका भाव यह है कि महापुरुपों को नमस्कार करना ही उनकी पूजा है । नमस्कार के द्वारा हम नमस्करणीय पवित्र ग्रात्मा के प्रति अपनी श्रद्धा, भक्ति और पूज्य भावना प्रकट करते हैं । यह नमस्कार - पूजा दो प्रकार से होती है - द्रव्य नमस्कार और भाव नमस्कार । द्रव्य नमस्कार का अभिप्राय है, हाथ-पैर और मस्तक आदि अगो को एक बार हरकत मे लाकर महापुरुष की ओर झुका देना, स्थिर कर देना । और भाव नमस्कार का अभिप्राय है— ग्रपने चचल मन को इधर-उधर के विकल्पो से हटाकर महापुरुष की ओर प्रणिधान - एकाग्र करना । नमस्कार करने वालो का कर्तव्य है कि वे दोनो ही प्रकार का नमस्कार करे । नम शब्द पूजार्थक है, इसके लिए धर्म - सग्रह का दूसरा घिकार देखिए
"नम इति नेपातिक पद पूजार्थम् । पूजा च द्रव्यभाव-सकोच. 1 तत्र करशिर पावादिद्रव्यसन्यासो द्रव्यसकोच. 1 मावस कोचस्तु विशुद्धस्य मनसो योग ।"
क्रम की सार्थकता
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यद्यपि श्राध्यात्मिक पवित्रतारूप निष्कलकता की सर्वोत्कृष्ट दशा मे पहुँचे हुए पूर्ण विशुद्ध श्रात्मा केवल सिद्ध भगवान् ही है,