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नमस्कार-सूत्र
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अत सर्वप्रथम उन्ही को नमस्कार की जानी चाहिए । परन्तु, सिद्ध भगवान् के स्वरूप को बतलाने वाले, और अज्ञान के सघन अधकार मे भटकने वाले मानव-ससार को सत्य की अखड ज्योति के दर्शन कराने वाले परमोपकारी श्री अरिहन्त भगवान् ही है, अत उनको ही सर्वप्रथम नमस्कार किया गया है। यह व्यावहारिक दृष्टि की विशेषता है।
प्रश्न हो सकता है कि इस प्रकार तो सर्वप्रथम साधु को ही नमस्कार करना चाहिए। क्योकि आजकल हमारे लिए तो वही सत्य के उपदेष्टा हैं। उत्तर मे निवेदन है कि सर्वप्रथम सत्य का साक्षात्कार करने वाले और केवल ज्ञान के प्रकाश मे सत्यासत्य का पूर्ण विवेक परखने वाले तो श्री अरिहन्त भगवान ही है। उन्होने साक्षात् स्वानुभूत सत्य-का जो-कुछ प्रकाश किया, उसीको मुनिमहाराज जनता को बताते हैं। स्वय मुनि तो सत्य के सीधे साक्षात्कार करने वाले नही है। वे तो परम्परा से आने वाला सत्य ही जनता के समक्ष रख रहे है । अत सत्य के पूर्ण अनुभवी मूल उपदेष्टा होने की दृष्टि से, गुरु से भी पहले अरिहन्तो को नमस्कार है।
'सर्वश्रेष्ठ मंत्र
जैन-धर्म में नवकार मंत्र से बढकर कोई भी दूसरा मत्र नही है। जैन-धर्म अध्यात्म-विचारधारा-प्रधान धर्म है, अत उसका मन्त्र भी अध्यात्म-भावना प्रधान ही होना चाहिए था। और इस रूप में नवकार मत्र है । नवकार मत्र के सम्बन्ध मे जैन-परम्परा की मान्यता है कि यह सम्पूर्ण जैन वाड मय का अर्थात् चौदह पूर्व का सार है, निचोड है। चौदह पूर्व का सार इसलिए है कि इसमे समभाव की महत्ता का तटस्थ भाव से दिग्दर्शन कराया गया है। बिना किसी साम्प्रदायिक भेदभाव के, बिना किसी देश या जाति-गत विशेषता के गुण-पूजा का महत्त्व बताया गया है। जैन-धर्म की सस्कृति का प्रवाह समभाव को लक्ष्य मे रखकर प्रवाहित हुआ है, फलत सम्पूर्ण जैन-साहित्य इसी भावना से ओत-प्रोत है। जैनसाहित्य का सर्वप्रथम मत्र नवकार मत्र भी उसी दिव्य समभाव का प्रमुख प्रतीक है। अत यह समग्र जैन-दर्शन का सार है, परम निष्यन्द है । नवकार को मत्र क्यो कहते है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जो मनन करने से, चिंतन करने से दुखो से त्राण-रक्षा करता है, वह मत्र होता है