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________________ सामायिक सूत्र १७४ वह दूसरो को किस प्रकार लक्ष्य पर पहुँचाएगा ? जिसका जीवन ही शास्त्र हो, जिसकी प्रत्येक क्रिया पर त्याग और वैराग्य की अमिट छाप हो, वही गुरु होने का अधिकारी है । मनुष्य का मस्तक बहुत बडी पवित्र चीज है । वह किसी योग्य महान् आत्मा के चरणो मे ही झुकने के लिए है । अत हर किसी ऐरे गैरे के प्रागे मस्तक रगडना पाप है, धर्म नही । अस्तु, गुरु बनाते समय विचार कीजिए, ज्ञान और क्रिया की ऊँचाई परखिए, त्याग और वैराग्य की ज्योति का प्रकाश देखिए । ऐसा गुरु ही ससार समुद्र से स्वय तिरता है और दूसरो को तार सकता हैं। गुरु की महत्ता ऊँची जाति और कुल वर्ग से नही है, रूप और ऐश्वर्य से नही है, किसी विशेष सम्प्रदाय से भी नही है । उसकी महत्ता तो मात्र गुणो से है, रत्नत्रय - ज्ञान, दर्शन, चारित्र से है । अतएव साम्प्रदायिक मोह को त्याग कर जहाँ कही गुरणो के दर्शन हो, वही मस्तक झुका दीजिए । गुरुदेव की महिमा के सम्बन्ध मे काफी वर्णन किया जा चुका है । अब जरा मूल-सूत्र के पाठो पर भी विचार कीजिए । गणधर देवो ने प्रस्तुत पाठ की रचना बडे ही भाव-भरे शब्दो मे की है। प्रत्येक शब्द प्रेम और श्रद्धा-भक्ति के गहरे रंग से रंगा हुआ है । उक्त पाठ के द्वारा शिष्य अपना अन्तर्हृदय स्पष्टतया खोल कर गुरुदेव के चरणो में समर्पण कर देता है । शब्दों मे भावो की गहराई # मूल-सूत्र में 'वंदामि' आदि चार पद एकार्थक जैसे मालूम होते हैं । त प्रश्न होता है कि यदि ये सब पद एकार्थक हैं, तो फिर व्यर्थ ही सब का उल्लेख क्यो किया गया है ? किसी एक पद से ही काम नही चल जाता ? सूत्र तो सक्षिप्त पद्धति के अनुगामी होते है । सूत्र का अर्थ ही है- 'सक्षेप में सूचना मात्र देना ।' 'सूचनात्सूत्रम् ' - अभिधान चि० २।१५७ परन्तु, यहाँ तो एक ही अर्थ की सूचना के लिए इतने लम्बे-चौडे शब्दो का उल्लेख किया है । क्या यह सूत्र की शैली है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में कहना है कि 'वदामि' आदि सब शब्दो का अलग-अलग
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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