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प्रणिपात -सूत्र
प्राचीन ग्रन्थों तथा ग्रागमो से प्रमाणित नही होता । 'नमोत्थुर ' के पाठ को जब हम सूक्ष्म दृष्टि से देखते है, तब पता चलता है कि यह पाठ न सब सिद्धो के लिए है और न सब अरिहन्तो के लिए ही । यह तो केवल तीर्थकरो के लिए है । अरिहन्त दोनो होते है - सामान्य केवली और तीर्थकर । सामान्य केवली मे 'तित्थयराणं, सय- सबुद्धारणं, धम्मसारहीण, धम्मवरचाउरतचक्कवट्टीणं' आदि विशेषरण किसी भी प्रकार से घटित नही हो सकते । सूत्र की शैली, स्पष्टतया 'नमोत्थुरण' का सम्बन्ध तीर्थकरों से तथा तीर्थंकरपद से मोक्ष पाने वाले सिद्धो से ही जोडती है, सब ग्ररिहन्तो तथा सब सिद्धो से नही ।
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दो बार क्यों ?
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मेरी तुच्छ सम्मति मे ग्राजकल प्रथम सिद्ध-स्तुति- विपयक 'ठारण मपत्तारण' वाला 'नमोत्थुरण' ही पढना चाहिए, दूसरा 'ठारण संपाविउकामारण' वाला नही । क्योकि, दूसरा 'नमोत्थुरण' वर्तमानकालीन अरिहन्त तीर्थकर के लिए होता है, सो ग्राजकल भारतवर्ष मे तीर्थकर विद्यमान नही हैं। आप प्रश्न कर सकते है कि महा विदेह क्षेत्र मे वीस विहरमान तीर्थंकर है तो सही । उत्तर है कि विद्यमान तीर्थंकरो को वन्दन, उनके अपने शासनकाल मे ही होता है, ग्रन्यत्र नही । हाँ तो क्या आप बीस विहरमान तीर्थकरो के शासन मे है, उनके बताए विधि-विधानो पर चलते हैं ? यदि नही तो फिर किस आधार पर उनको वन्दन करते हैं ? प्राचीन ग्रागम - साहित्य मे कही पर भी विद्यमान तीर्थकरो के प्रभाव मे दूसरा 'नमोत्थुग' नही पढा गया । जातासूत्र के द्रौपदी - अध्ययन मे धर्मरुचि अनगार सथारा करते समय 'सपत्ताण' वाला ही प्रथम 'नमोत्थुरण' पढते है, दूसरा नही । इसी सूत्र मे कुण्डरीक के भाई पुण्डरीक और अर्हनक श्रावक भी सथारे के समय प्रथम पाठ ही पढते है, दूसरा नही । क्या उस समय भूमण्डल पर अरिहन्ती तथा तीर्थकरो का प्रभाव ही हो गया था ? महाविदेह क्ष ेत्र मे तो तीर्थकर तब भी थे । और सामान्य केवलीअरिहन्त तो, अन्यत्र क्या, यहाँ भारतवर्ष मे भी होगे । उक्त विचारणा के द्वारा