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हो, कोर्ट-कचहरी मे हो, किसी भी व्यावहारिक कार्य मे और कही भी क्यो न हो, सर्वत्र और सभी समय सामायिक की मौलिक भावना के अनुसार हमारा सब लौकिक व्यवहार चलना चाहिए । उपाश्रय या स्थानक मे, "सावज्ज जोग पच्चक्खामि"-'पाप-युक्त प्रवृत्तियो का त्याग करता हूँ'-सामायिक के रूप मे ली गई उक्त प्रतिज्ञा की सार्थकता वस्तुत आर्थिक, राजनीतिक और घरेलू व्यवहारो मे ही सामने आ सकती है । दृढ निश्चय के साथ जीवन मे सर्वत्र सामायिक-प्रयोग की भावना अपनाने के लिए ही तो हम प्रतिदिन उपाश्रयादिक पवित्र स्थानो मे देवगुरु के समक्ष, “सावज्ज जोग पच्चक्खामि" की उद्घोषणा करते है, सामायिक का पुन -पुन अभ्यास करते है। जब हम अभ्यास करते-करते जीवन के सब व्यवहारो मे सामायिक का प्रयोग करना सीख जाएं और इस क्रिया मे भली-भांति समर्थ हो जायें, तभी हमारा द्रव्य सामायिक के रूप मे किया हुआ नित्यप्रति का अभ्यास सफल हो सकता है और तभी हम सच्चे सामायिक का परिणाम प्रत्यक्ष रूप मे देख सकते है, अनुभव कर सकते हैं। ____ जो भाई यह कहते है कि उपाश्रय और स्थानक मे तो सामायिक करना शक्य है, परन्तु सर्वत्र और सभी समय सामायिक कैसे निभ सकती है ? उनसे मैं कहूँगा कि जब आप दुकान पर हो तो ग्राहक को अपने सगे भाई को तरह समझ, फलत उससे किसी भी रूप मे छल का व्यवहार नहो करें, तोलमाप में ठगाई नही करें, वह जैसा सौदा मागता है वैसा ही सौदा यदि दुकान मे हो, तो उचित मूल्यो मे दें। यदि सौदा खराब हो, बिगडा हुआ हो, तो स्पष्ट इन्कार कर दें, तो इस सत्य व्यवहारमय दुकानदारी का नाम भी सामायिक होगा। निश्चय ही आप उस समय बिना मुख-वस्त्रिका और राजोहरण के, बिना आसन और माला के होते हैं, परन्तु समभाव मे रहकर सयत वाणी बोलते हुए भगवान् महावीर की बताई हुई सच्ची सामायिकविधि का पालन अवश्य कर लेते है।
इसी प्रकार, आप घर के व्यवहार मे भी समझ सकते है । यदि आप घर मे माता, पिता, भाई, बहिन, बहू, बेटे और बेटी इत्यादि सभी स्वजनो के साथ आत्मवत् व्यवहार करने मे सदा जागरूक है। कभी अज्ञान, मोह या लोभ के कारण उत्पात खडे होने की सभावना हो, तो आप समभाव से अपना कर्तव्य सोचते है। किसी भी प्रकार का