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क्ष ब्ध वातावरण हो, अपने विवेक को जागत रखते है, तो यह भी सच्ची सामायिक होगी। इसी तरह लेन-देन, खेती के कामो और मजदूरो आदि की समस्या भी सुलझाई जा सकती है। साहूकार, कृषक और किसी भी श्रमजीवी का झगडा, आप समभाव-रूप सामायिक के सतत अभ्यास और विवेक के द्वारा प्रेम-पूर्वक सुलझा सकेंगे।
एक बात और । सच्ची सामायिक का फल वैभव-प्राप्ति नही है, भोग-प्राप्ति नही है, पुत्र और राज्य-प्राप्ति भी नही है। सामायिक का फल तो सर्वत्र समभाव की प्राप्ति, समभाव का अनुभव, प्राणिमात्र मे समभाव की प्रवृत्ति, मानव-समाज मे सुख-शाति का विस्तार, अशाति का नाश और कलह-प्रपंच का त्याग है । यही सामायिक का लक्ष्य है और यही सामायिक का उद्देश्य है।
सामायिक समभाव की अपेक्षा रखता है। वह मुख-वस्त्रिका, रजोहरण और प्रासन आदि की तथा मन्दिर आदि की अपेक्षा नही रखता । उक्त सब चीजो को समभाव के अभ्यास का साधन कहा जा सकता है। परन्तु यदि वे चीजें समभाव के अभ्यास मे हमे उपयोगी नही हो सकी, तो परिग्रहमात्र है, आडम्बरमात्र हैं । सामायिक करते हुए हमे लोभ, क्रोध, मोह, अज्ञान, दुराग्रह, अन्ध-श्रद्धा तथा साम्प्रदायिक द्वष को त्यागने का अभ्यास करना चाहिए। अन्य सम्प्रदायो के साथ समभाव से वर्ताव करना तथा उनके विचारो को सरल भाव से समझना, सामायिक के साधक का यह आवश्यक कर्तव्य है। उक्त बातो पर कविश्री जी ने अपने विवेचन मे विस्तार के साथ बहुत अच्छे ढंग से प्रकाश डाला है। ___कभी-कभी हम धार्मिक क्रिया-काडो और विधि-विधानो को प्रपचसिद्धि का निमित्त भी बना लेते है, धर्म के नाम पर खुल्लम-खुल्ला अधर्म का प्राचरण करने लगते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि हम उन विधानो का हृदय एव भाव ठीक तरह समझ नही पाते। आज के धर्म और सम्प्रदायो के अधिकतर अनुयायियो का प्रत्यक्ष आचरण तथा धर्म-विधान इसकी साक्षी दे रहा है ।
दूसरी, फूट की मनोवृत्ति है-धार्मिक फूट की मनोवृत्ति को ही हम लेंगे । हमारे पूर्वजो ने, सुधारको ने समय-समय पर युगानुकूल उचित परिप्कार और क्राति की भावना से प्रेरित होकर प्राचीन