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________________ : ८ . उद्देश्य है। मानव की दृष्टि सर्वप्रथम अपनी ही देह, इन्द्रियाँ और भोग-विलास तक पहुँचती है, फलत उसकी रक्षा के लिए वह सारे कार्य-अकार्य करने को तैयार रहता है। जब वह आगे बढकर पारिवारिक चेतना प्राप्त करता है, तब उसकी वह रक्षणवृत्ति विकसित होकर परिवार की सीमा मे पहुँच जाती है। परन्तु, सामायिक का दूरगामी आदर्श हमे बताता है कि स्वरक्षण वृत्ति के विकास का महत्त्व केवल अपनी देह और परिवार तक ही सीमित नही, वह तो विश्वव्यापी है । वह शाति परिषद् (पीस कान्फ्रेस) की तरह केवल विचारमात्र मे नही, अपितु व्यवहार मे प्राणि-मात्र की रक्षा-वृत्ति मे है । विश्व-रक्षण का भाव रखने वाला और उसी के अनुसार कार्य करने वाला मानव ही सच्ची सामायिक करता है। फिर भले ही वह श्रावक हो या और कोई गृहस्थ हो, किंवा सन्यस्त साधु हो। किसी भी सप्रदाय-मत का अथवा देश का क्यो न हो और किसी भी विधि-परपरा से सम्बन्ध रखने वाला क्यो न हो । विभिन्न जातियाँ, विभिन्न भाषाएं और विभिन्न विधियाँ सामायिक मे अन्तर नही डाल सकती, रुकावट पैदा नही कर सकती। जहाँ समभाव है, विश्वरक्षणवृत्ति है और उसका आचरण है, वही सामायिक है। बाह्य भेद गौण है, मुख्य नही। प्राणि-मात्र को आत्मवत् समझते हुए सब व्यवहार चलाने का ही नाम सामायिक है-सम+पाय+इक-सामायिक । समसमभाव, सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति, आय लाभ, जिस प्रवृत्ति से समता की, समभाव की प्राप्ति हो, वही सामायिक है। जैन शास्त्र मे सामायिक के दो भेद बताए गए है-एक द्रव्यसामायिक, दूसरी भाव-सामायिक । समभाव की प्राप्ति, समभाव का अनुभव और फिर समभाव का प्रत्यक्ष आचरण-भाव सामायिक है। ऐसे भाव-सामायिक की प्राप्ति के लिए जो बाह्य साधन और अतरग-साधन जुटाए जाते हैं, उसे द्रव्य-सामायिक कहते हैं। जो द्रव्यसामायिक हमे भाव-सामायिक के समीप न पहुंचा सके, वह द्रव्यसामायिक नही, किन्तु अन्ध-सामायिक है, मिथ्या सामायिक है, यदि और उग्न भाषा मे कह दूं, तो छल-सामायिक है। हम अपने नित्य प्रति के जीवन मे भाव-सामायिक का प्रयोग करें, यही द्रव्य-सामायिक का प्रधान उद्देश्य है। हम घर मे हो, दुकान मे
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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