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सामायिक-प्रवचन
साधु और साध्वी की सामायिक
करेमि भते ! सामाइयं =हे भगवन् | मैं समतारूप सामायिक
करता हूँ। सव्व सावज्ज जोग पच्चक्खामि सब सावद्य-पापो के व्यापार
त्यागता हूँ। जावज्जीवाए पज्जुवासामि=यावज्जीवन-जीवन-भर के लिए
__ सामायिक ग्रहण करता हूँ। तिविह तिविहेणं
=तीन करण, तीन योग से। मणेण वायाए काएग =मन से, वचन से, शरीर से
(पाप कर्म)। न करेमि, न कारवेमि, करत पि=न करूंगा, न कराऊ गा, करने वाले अन्न न समणुज्जारणामि दूसरे का अनुमोदन भी नही करू गा। तस्स भते पडिक्कमामि हे भगवन् । उस पापरूप व्यापार से
हटता हूँ। निंदामि, गरिहामि =निन्दा, करता हूँ, गर्दा करता हूँ।
अप्पाण वोसिरामि
=पापमय आत्मा को वोसराता हूँ।
श्रावक और श्राविका की सामायिक
श्रावक और श्राविकाओ के सामायिक का पाठ भी यही है । केवल 'सव्वं सावज्ज' के स्थान मे 'सावज्ज' 'जावज्जीवाएं' के स्थान मे 'जावनियम', तिविह तिविहेण' के स्थान मे 'दुविह तिविहेण' बोला जाता है। और करत पि अन्न न समरणज्जारणामि' यह पद बिल्कुल ही नही बोला जाता।
पाठक समझ गए होगे कि साधु और श्रावको के सामायिक व्रत मे कितना अन्तर है ? आदर्श एक ही है, किन्तु गृहस्थ देश सयमी है, परिग्रह आदि रखता है, अत वह तीन करण, तीन योग से पापो का सर्वथा परित्याग नही कर सकता। वह सामायिककाल मे मन-वचन और शरीर से पाप-कर्म न स्वय करेगा, न दूसरो