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सम्यक्त्व सूत्र
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यात्रा तय नही हो सकती। अत. तर्क एव युक्ति के क्षेत्र मे अग्रसर होते हुए भी, साधक को अध्यात्म-भावना प्रधान आगम-वारणी से अपना सम्बन्ध नहीं तोडना चाहिए।
मिथ्यात्व-परिहार
सम्यक्त्व का विरोधी तत्त्व मिथ्यात्व है । सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनो का एक स्थान पर होना असभव है । अत सम्यक्त्व-धारी साधक का कर्तव्य है कि वह मिथ्यात्व भावनामो से सर्वदा सावधान रहे। कही ऐसा न हो कि भ्राति-वश मिथ्यात्व की धारणायो पर चलकर अपने सम्यक्त्व को मलिन कर बैठे । सक्षेप मे, मिथ्यात्व के दश भेद हैं
१--जिनको कचन और कामिनी नही लुभा सकती, जिनको सासारिक लोगो की प्रशसा, निंदा आदि क्षुब्ध नही कर सकती, ऐसे सदाचारी साधुओ को साधु न समझना ।
२-जो कचन और कामिनी के दास बने हुए हैं, जिनको सासारिक लोगो से पूजा प्रतिष्ठा पाने की दिन-रात इच्छा बनी रहती है, ऐसे साधु-वेश-धारियो को साघु समझना । - ३–क्षमा, मार्दव, आर्नव, शौच, सत्य, सयम, तप, त्याग, आकिचन्य और ब्रह्मचर्य-ये दश प्रकार का धर्म है । दुराग्रह के कारण उक्त धर्म को अधर्म समझना ।
४-जिन कार्यों से अथवा विचारो से आत्मा की अधोगति होती है, वह अधर्म है । अस्तु, हिंसा करना, शराब पीना, जुआ खेलना, दूसरो की बुराई सोचना इत्यादि अधर्म को धर्म समझना ।
५-शरीर, इन्द्रिय और मन ये जड है। इनको आत्मा समझना, अर्थात् अजीव को जीव मानना।
६-जीव को अजीव मानना । जैसे कि गाय, बैल, बकरी आदि प्राणियो मे प्रात्मा नही है, अतएव इनके मारने या खाने मे कोई पापं नही है-ऐसी मान्यता रखना।
७-उन्मार्ग को सुमार्ग समझना। शीतला-पूजन, गगा-स्नान, श्राद्ध प्रादि लोकमान्यताएं, तथा जो पुरानी या नयी कुरीतियाँ हैं, जिनसे सचमुच हानि होती है, उन्हे ठीक समझना ।