________________
१६०
सामायिक सूत्र
८-सुमार्ग को उन्मार्ग समझना । जिन पुरानी या नयी प्रथाश्रो से धर्म की वृद्धि होती है, सामाजिक उन्नति होती है उन्हे ठीक न समझना।
६-कर्म रहित को कर्म-सहित मानना। परमात्मा मे राग,द्वेष नहीं हैं, तथापि यह मानना कि भगवान् अपने भक्तो की रक्षा के लिए दैत्यो का नाश करते हैं और अमुक स्त्रियो की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके पति बनते है, इत्यादि ।
१०-कर्म-सहित को कर्म-रहित मानना । भक्तो की रक्षा और शत्रु यो का नाश राग द्वेष के विना नही हो सकता और राग, द्वेष कर्म-सम्बन्ध के विना नही हो सकते । तथापि मिथ्या आग्रह-वश यही मानना कि यह सब भगवान की लीला है। सब-कुछ करते हुए भी अलिप्त रहना उन्हे आता है और इसलिए वे अलिप्त रहते हैं। उक्त दश प्रकार के मिथ्यात्व से सतत दूर रहना चाहिए।
सम्यक्त्व-सूत्र का प्रतिदिन पाठ क्यों ? अत मे एक प्रश्न है कि जब साधक अपनी साधना के प्रारम्भिक काल मे सर्व-प्रथम एक बार सम्यक्त्व ग्रहण कर ही लेता है और तत्पश्चात् ही अन्य धर्म-क्रियाएं शुरू करता है, तब फिर उसका नित्यप्रति पाठ क्यो? क्या प्रतिदिन नित्य नयी सम्यक्त्व ग्रहण करनी चाहिए ? उत्तर है कि सम्यक्त्व तो एक बार प्रारम्भ मे ग्रहण की जाती है, प्रतिदिन नही । परन्तु, प्रत्येक सामायिक आदि धर्म-क्रिया के प्रारम्भ मे, प्रतिदिन जो यह पाठ बोला जाता है, इसका प्रयोजन सिर्फ यह है कि ग्रहण की हुई सम्यक्त्व की स्मृति को सदा ताजा रक्खा जाय । प्रतिदिन प्रतिज्ञा को दोहराते रहने से आत्मा मे बल का सचार होता है, और प्रतिज्ञा नित्य प्रति अधिकाधिक स्पष्ट, शुद्ध एव सवल होती जाती है।
यदि वास्तविक दृष्टि से विचार किया जाए तो सम्यक्त्व ग्रहण करने की, किसी से लेनेदेने की चीज नही है। वह तो आत्मा की एक विशिष्ट शुद्ध परिणति है, वह अन्तर मे से ही जागृत होती है । यह जो पाठ हैं, वह बाहर का व्यवहार है। इसका लाभ केवल इतना है कि साधक को सम्यक्त्व के स्वरूप की प्रतीति होती रहे, अपने शुद्ध स्वरूप एव ध्येय की स्मृति सदा जागृत रहे ।