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________________ ११८ सामायिक-प्रवचन सघन जल वर्षा से सब ओर से धुलकर आत्मा का शुद्ध प्रकाशमय रूप प्रगट हो जाने की कल्पना करनी चाहिए। इस प्रकार धारणाओं की कल्पना के माध्यम से साधक उत्तरोत्तर आत्मस्वरूप तक पहुँचने का प्रयत्न करता है । उक्त पिण्डस्थ ध्यान को विकसित व अधिक स्थिर वनाने के लिये 'पाजाचक्र' को समझना आवश्यक है। प्राज्ञाचक्र ध्येय पर मन को केन्द्रित करने के लिये साधना विधि मे 'आज्ञाचक्र' का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इससे बाहर मे विभिन्न विषयो पर भटकता हुआ मन केन्द्र पर स्थिर हो जाता है और उसी विषय मे चिन्तन-मनन का प्रवाह आगे बढने लगता है। अाजाचक्र का अर्थ है-भ्र मध्य में ध्यान को केन्द्रित करना। सिद्धासन प्रादि दृढ आसन से मेरुदण्ड (रीढ की हड्डी) को सीधा करके वैठ जाएं, ध्यान मुद्रा लगाएं और फिर मानसचक्ष, अर्थात् मन की आँखो से दोनो भ्रू के मध्य मे देखने का प्रयत्न करें। इस अवस्था मे पाखे खुली नही रहनी चाहिए, केवल कल्पना से ही भ्र मध्य को देखा जाए और फिर उस केन्द्र मे 'ॐ' या 'अहं' की स्थापना करके उसी के स्वरूप का चिंतन करे । भ्र मध्य को योग की भाषा मे 'श्राज्ञा चक्र' कहते है। आजाचक्र की साधना प्रारम्भ मे कुछ कठिन प्रतीत होती है, किन्तु निरन्तर के अभ्यास से यह साधना सरल बन जाती है और बहुत ही आनन्दप्रद प्रतीत होती है । हाँ, वृत्तियो व शरीर के साथ हठ नही करना चाहिए, शनै शन इस ओर बढना चाहिए। मेरा अपना अनुभव है कि कुछ दिन सतत अभ्यास के पश्चात् इस अवस्था मे मन की निर्विकल्पता वढने लगती है, मन सहज मे ही स्थिर एव वृत्तियाँ शान्त होने लगती है तथा मानसिक उल्लास, प्रसन्नता एव ताजगी का अनुभव होने लगता है। पदस्थध्यान पदस्थ ध्यान का अर्थ है-पदो पर ध्यान केन्द्रित करना । यो तो साधक अपनी रुचि व कल्पना के अनुसार किसी भी प्रकार के सकल्प
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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