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सामायिक में ध्यान
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ध्यान के भेद
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होते हुए भी बहुत प्रवृत्ति अर्थात् बार ध्यान मे किसी एक
जप और ध्यान की प्रक्रिया बहुत कुछ समान भिन्न भी है । जप मे जहाँ एक ही मंत्र व पद की बार चिन्तन व उच्चारण किया जाता है, वहाँ ही विषय पर चिन्तन - अनुचिन्तन की प्रखंड धारा प्रवाहित होती रहती है । जप साधना की अपेक्षा ध्यान साधना मे मानसिक चिन्तन अधिक स्थिर एव निर्मल होता है, इस दृष्टि से ध्यान साधना, जपसाधना से अधिक महत्त्वपूर्ण व श्रेष्ठ मानी गई है ।
स्थानाग सूत्र यादि प्राचीन आगमो मे ध्यान के अनेक भेद-प्रभेद वर्णन किये गये हैं | योग शास्त्र, ज्ञानार्णव तथा तत्त्वानुशासन आदि ग्रन्थो मे पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एव रूपातीत आदि अनेक ध्यानविधियाँ बताई गई है, जो प्राथमिक ध्यानसाधक के लिये अतीव उपयोगी है | यहाँ हम अधिक विस्तार मे न जाकर सक्षेप मे ही कुछ वर्णन पाठको की जिज्ञासापूर्ति के लिये कर रहे हैं ।
पिण्डस्थ ध्यान
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किसी शान्त एकान्त स्थान मे सिद्धासन, पद्मासन आदि किसी श्रेष्ठ आसन से बैठकर पिण्डस्थ ध्यान किया जाता है । पिण्ड का अर्थ है- शरीर | अत पिण्डस्थ ध्यान का मतलब हुआ पिण्ड ग्रर्थात् देह के प्रमुख – ललाट, ब्रह्म रंध्र, आज्ञाचक्र, कठ, नासिकाग्रभाग तथा नाभिकमल आदि पर मन को केन्द्रित करना ।
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प्राचीन आचार्यों ने पिण्डस्थ ध्यान के क्रम मे पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी एव तत्त्ववती धारणा नामक पाँच धारणाओ के माध्यम से उत्तरोत्तर ग्रात्मकेन्द्र पर ध्यानस्थ होने का वर्णन किया है । इन धारणाओ मे साधक सर्वप्रथम अपने को पार्थिवी धारणा मे कमल पर समासीन देखता है, फिर ग्राग्नेयी धारणा मे चारो ओर अग्नि ज्वालाएँ दहकने की कल्पना करता है, जिसमे शरीर भस्म होकर अन्तर् मे से हस्त पादादि श्रवयवो से रहित केवल घनपिण्डरूप देहाकार 'ग्रात्मा' चमकने लगती है । ग्रनन्तर वायवी धारणा मे वायु के प्रबल झोको से राख उड जाने की और फिर वारुरणी धारणा मे