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चैतन्य
नित्य है , कूटस्थ-एकरस नित्य नहीं। यदि वह साख्य की मान्यता के अनुसार कूटस्थ नित्य होता, तो फिर नरक, देव, मनुष्य आदि नाना गतियो मे कैसे घूमता ? कभी क्रोधी और कभी शान्त कैसे होता ? कभी सुखी और कभी दुखी कैसे बनता ? कूटस्थ को तो सदा काल एक जैसा रहना चाहिए | कूटस्थ मे परिवर्तन कैसा? यदि यह कहा जाए कि ये सुख, दुख, ज्ञान, ग्रादि सब प्रकृति के धर्म है, आत्मा के नही, तो यह भी मिथ्या है। क्योकि, ये वस्तुत प्रकृति के धर्म होते, तब तो आत्मा के निकल जाने के बाद, जड प्रकृति-रूप से अवस्थित मृतक शरीर मे भी होने चाहिए थे, पर उसमे होते नही। क्या कभी किसी ने सजीव शरीर के समान, निर्जीव हड्डी और मास को भी दुख से घबराते और सुख से हर्षित होते देखा है ? अत सिद्ध है कि आत्मा परिणामशील नित्य है । साख्य के अनुसार कूटस्थ नित्य नही । परिणामी नित्य से यह अभिप्राय है कि प्रात्मा कर्मानुसार नरक, तिर्यच आदि मे तथा सुख-दुख रूप मे बदलती भी रहती है और फिर भी आत्मतत्त्वरूप मे स्थिर, नित्य रहती है। आत्मा का कभी नाश नही होता । सुवर्णककरण आदि गहनो के रूप मे बदलता रहता है, साथ ही सुवर्ण-रूप से ध्रुव भी रहता है। इसी प्रकार आत्मा भी।”
आत्मा अनन्त है
वेदान्त के अनुसार प्रात्मा एक और सर्वव्यापी भी नही । यदि ऐसा होता, तो जिनदास, कृष्णदास, रामदास आदि सब व्यक्तियो को एक समान ही सुख-दुख होना चाहिए था। क्योकि जब आत्मा एक ही है, और वह सर्वव्यापी भी है , फिर प्रत्येक व्यक्ति अलगअलग सुख-दुख का अनुभव क्यो करे ? कोई धर्मात्मा और कोई पापात्मा क्यो बने ? दूसरा दोष यह है कि सर्वव्यापी मानने से परलोक भी घटित नही हो सकता। क्योकि जब यात्मा आकाश के समान सर्वव्यापी है, फलत कही आती-जाती ही नही , तब फिर नरक स्वर्ग आदि विभिन्न स्थानो मे जाकर पुनर्जन्म कैसे लेगी? सर्वव्यापी को कर्मबन्धन भी नही हो सकता | क्या कभी सर्वव्यापी आकाश भी किसी बन्धन मे आता है ? और जव बन्धन ही नही तो फिर मोक्ष कहाँ रहा?