________________
· १३ :
धर्म का प्राचार्य है, उसी धर्म का शत्रु होता है । अर्थात् ऐसा धर्मगुरु । धर्मशत्रु का काम करता है।" ___ "द्रव्य, क्षेत्र, काल,भाव, पर्याय, देश, सयोग और भेद इत्यादि को लक्ष्य मे रखकर ही शास्त्रो का विवेचन करना चाहिए । अधिकारी जिज्ञासु का ख्याल किए बिना ही किया गया धर्म-विवेचन, वक्ता और श्रोता दोनो का ही अहित करता है।"
धर्म-साधना के लिए बाह्य साधनो का त्याग कर देना ही कोई साधना नही है । साधन से त्याग से ही विकारी मनोवृत्ति का अन्त नही हो जाता । कल्पना कीजिए, एक आदमी कलम से अश्लील शब्द लिखता है। उसे कोई धर्मोपदेशक यह कहे कि कलम से अश्लील शब्द लिखे जाते है, अत कलम को फेक दो, तो क्या होगा? वह कलम फेक देगा, और कलम से अश्लील शब्द लिखना बन्द हो जायगा, परन्तु फिर पेन्सिल से लिखने लगेगा। वह भी छ डा दी जायगी, तो खडिया या कोयले से लिखेगा। यदि उसे भी अधर्म कह कर फिकवा देंगे, तो नख-रेखायो मे अश्लीलता अकित करने की भावना जोर पकडेगी । इस प्रकार साधन के फेकने अथवा बदलने से मानव कभी भी अश्लील प्रवृत्ति का परित्याग नही कर सकता। वह साधन बदलता चला जायगा, परन्तु भावना को नही बदलेगा । अतएव धर्मोपदेशक गुरु को विचार करना चाहिए कि अश्लील प्रवृत्ति का मूल कहाँ है ? उसका मूल साधन मे नही, अज्ञान मे है, और, अज्ञान का मूल कहाँ है ? अज्ञान का मूल अशुद्ध सकल्प मे मिलेगा। ऐसी स्थिति मे अश्लील प्रवृत्ति को रोकने के लिए हमारे हृदय मे जो अशुद्ध सकल्प है, उसका परिहार आवश्यक है। उदाहरण के लिए, अश्लील-लेखन कोही लीजिए। अश्लील-लेखन को रोकने लिए कलम फिकवा देना आवश्यक नही है। आवश्यक है मनुष्य के मन मे रहने वाले अशुद्ध सकल्पो का त्याग, बुरे भावो का त्याग । अस्तु, अशुद्ध सकल्पो के त्याग पर ही जोर देना चाहिए, और बताना चाहिए कि अशुद्ध सकल्प ही अधर्म है, पाप है, हिंसा है। जबतक मन मे से यह विष न निकलेगा, तबतक केवल साधनो को छोड देने अथवा साधनो मे परिवर्तन कर लेने भर से किसी प्रकार भी शुद्धि होना सभव नही । जो समाज केवल वाद्य साधनो पर ही धर्मभाव प्रतिष्ठित करता है, अन्तर्जगत् मे उतर कर अशुद्ध सकल्पो