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कर्मकाण्ड एक पाखड बन कर रह जाता है । यदि शुद्ध व्यवहार को ही धर्माचरण समझे, तो फिर अनेक मत-मतान्तरो के होने पर भी किसी प्रकार की हानि को सभावना नही है । धर्म और मत- पथ कितने ही क्यो न हो, यदि वे सत्य के उपासक है, पारस्परिक अखड सौहार्द के स्थापक है, आध्यात्मिक जीवन को स्पर्श करने वाले है, तो समाज का कल्यारण ही करते है । परन्तु, जब मुमुक्षा कम हो जाती है, साधना - वृत्ति शिथिल पड जातीं है और केवल पूर्वजो का राग अथवा अपने हठ का राग बलवान् बन जाता है तब संप्रदाय पुराने विधि-विधानो की कुछ की कुछ व्याख्या करने लगते है और जनता को - भ्रान्ति मे डाल देते है । ऐसी दशा मे गतानुगतिक साधारण जनता सत्य के तट पर न पहुँच कर क्रियाकाण्ड के विकट भँवर मे ही चक्कर काटने लगती हैं ।
जवतक साधारण जनता मे प्रचुर प्रजान है, विवेक-शक्ति का अभाव है, तबतक किसी भी कर्मकाण्ड से उसको लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होती है । धार्मिक कर्मकाण्ड मे हानि नही है, जनता का स्वयं का अज्ञान या उपदेशको द्वारा दिया गया मिथ्या उपदेश ही हानि का कारण है । सक्षेप में, हमारे कहने का भाव यह है कि यदि धार्मिक क्रियाकाड के द्वारा जनता को वस्तुत लाभ पहुँचाना ग्रभीष्ट हो, तो धार्मिक कर्मकाण्ड मे परिवर्तन करने की अपेक्षा, तद्गत प्रज्ञानता को ही दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। मै आज के जन हितैषी प्राचार्यो से प्रार्थना करूंगा कि वे मुमुक्षु जनता को धार्मिक कर्मकाण्डो की पृष्ठभूमि मे रहने वाले सत्य का प्रकाश दे और निष्प्राण क्रियाकाण्ड मे प्रारण डालने का प्रयत्न करें। हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थों मे इसीलिए कहा है
"जो वर्ग धर्मगुरु या धर्मप्रज्ञापक का पद धारण करता है, उसको गंभीर भाव से अन्तर्मुख होकर शास्त्रो का अध्ययन मनन और परिशीलन करना चाहिए। मात्र शास्त्रीय सिद्धातों के ऊपर राग-दृष्टि रखने से उनका ज्ञान नही हो सकता । यदि ज्ञान हो भी जाए, तो ऐसा ज्ञान शास्त्रो के प्रज्ञापन मे निश्चित और प्रामाणिक नही हो सकता ।"
"जिस धर्मगुरु की प्रसिद्धि बहुश्रुत के रूप मे जनता मे होती है, जिसका लोग श्रादर करते है, जिसकी शिष्य परम्परा विस्तृत है, यदि उसकी शास्त्रीय ज्ञान की प्ररूपणा निश्चित नही है, तो वह जिस