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का बहिष्कार नही करता, वह क्रिया जड हो जाता है । अशुद्ध सकल्पो के त्याग मे ही शुद्ध व्यवहार, शुद्ध आचरण और शुद्ध धर्म-प्रवृत्ति सभव है, अन्यथा नही ।
उपर्युक्त सभी बातो पर कविरत्नजी ने सम्यक् रूप से विवेचना प्रस्तुत की है । इस ओर उनका यह प्रयास सर्वथा स्तुत्य कहा जायगा । कम से-कम मैं तो इस पर अधिक प्रसन्न हूँ और प्रस्तुत प्रकाशन को एक श्रेष्ठ अनुष्ठान मानता हूँ । सर्वसाधारण मे धर्म की वास्तविक साधना के प्रचार के लिए, यह जो मगल प्रयत्न किया गया है, उसके लिए कविश्री जी को भूरि-भूरि धन्यवाद ।
मेरा विश्वास है, प्रस्तुत सामायिक सूत्र के अध्ययन से जैनसमाज मे सर्व-धर्म समभाव की अभिवृद्धि होगी और भाई-भाई के समान जैन - सप्रदायो मे उचित सद्भाव एवं प्रेम का प्रचार होगा । इतना ही नही, जैन संघ को हानि पहुँचाने वाली उलझने भी दूर होगी ।
कविरत्नजी दीर्घजीवी बनकर समाज को यथावसर ऐसे अनेक ग्रन्थ प्रदान करे और अपनी प्रतिभा का अधिकाधिक योग्य परिचय दे, यह मेरी मंगल कामना है ।
१२ ब, भारतीय निवास सोसाइटी अहमदाबाद (गुजरात)
- बेचरदास दोशी