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सामायिक-सूत्र
पुण्यानुबन्धी पुण्य के द्वारा प्राप्त होता है, फलत जगत् का कल्याण करता है। इसमे पाप की कल्पना करना तो वज-मूर्खता है। कौन कहता है कि जीवो की रक्षा करना पाप है ? यदि पाप है, तो भगवान् को यह पाप-जनक अतिशय कैसे मिला ? यदि किसी को सुख पहुंचाना वस्तुत पाप ही होता, तो भगवान् क्यो नही किसी पर्वत की गुहा मे बैठे रहे ? क्यो दूर-सुदूर देशो मे भ्रमण कर जगत् का कल्याण करते रहे ? अतएव यह भ्रान्त कल्पना है कि किसी को सुख-शान्ति देने से पाप होता है। भगवान् का यह मगलमय अतिशय ही इसके विरोध मे सब से बड़ा और प्रबल प्रमाण है।
लोकप्रदीप
तीर्थ कर भगवान लोक मे प्रकाश करने वाले अनुपम दीपक है । जब ससार मे अज्ञान का अन्धकार घनीभूत हो जाता है, जनता को अपने हित-अहित का कुछ भी भान नही रहता है, सत्य-धर्म का मार्ग एक प्रकार से विलुप्त-सा हो जाता है, तव तीर्थ कर भगवान अपने केवल ज्ञान का प्रकाश विश्व मे फैलाते है और जनता के मिथ्यात्व-अन्धकार को नष्ट कर सन्मार्ग का पथ आलोकित करते है।
घर का दीपक घर के कोने मे प्रकाश करता है, उसका प्रकाश सीमित और धुंधला होता है। परन्तु, भगवान् तो तीन लोक के दीपक है, तीन लोक मे प्रकाश करने का महान् दायित्व अपने पर रखते है। घर का दीपक प्रकाश करने के लिए तेल और बत्ती की अपेक्षा रखता है, अपने-आप प्रकाश नहीं करता, जलाने पर प्रकाश करता है, वह भी सीमित प्रदेश मे और सीमित काल तक । परन्तु तीर्थ कर भगवान् तो बिना किसी अपेक्षा के अपने-आप तीन लोक
और तीन काल को प्रकाशित करने वाले है । भगवान् कितने अनोखे दीपक है । __ भगवान् को दीपक की उपमा क्यो दी? मूर्य और चन्द्र आदि की अन्य सव उत्कृष्ट उपमाएँ छोड़ कर दीपक ही क्यो अपनाया गया ? प्रश्न ठीक है, परन्तु जरा गम्भीरता से सोचिए, नन्हे से