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सामायिक के अधिकारी
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मनुष्य, धर्मक्रिया नहीं करता, परन्तु धर्मक्रिया का अपमान करता है, पाप-कर्म की ओर से सर्वथा निर्भय होकर बार-बार पाप-क्रिया का आचरण करता है । समझता है कि कोई हर्ज नही, सामायिक करके सब पाप धो डालूगा । वह अधिकाधिक ढीठ बनता जाता है।
सद्गुरणों की साधना
अतएव साधक का कर्तव्य है कि वह मात्र सामायिक के समय मे ही नहीं, किन्तु सासारिक व्यवहार के समय मे भी अपने आपको अच्छी तरह सावधान रक्खे, पापकर्मो की ओर अधिक आकर्षण न रक्खे । यद्यपि ससार मे रहते हुए हिंसा, झूठ आदि का सर्वथा त्याग होना अशक्य है, फिर भी सामायिक करने वाले श्रावक का यही लक्ष्य होना चाहिए कि "मै अन्य समय मे भी हिंसा, झूठ आदि से जितना भी बच सकू, उतना ही अच्छा है । जो दुष्कर्म आत्मा मे विषम भाव उत्पन्न करते है, दूसरो के लिए गदा वातावरण पैदा करते हैं, यहाँ अपयश करते हैं और अन्त मे परलोक भी बिगाडते है, उनको त्यागकर ही यदि सामायिक होगी, तो वह सफल होगी, अन्यथा नही । रोग दूर करने के लिए केवल औषधि खा लेना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसके अनुकूल पथ्य-उचित आहार विहार भी रखना होता है। सामायिक पापनाश की अवश्य ही अमोघ औषधि है, परन्तु इसके सेवन के साथ-साथ तदनुकूल न्याय नीति से पुरुषार्थ करना, वैर-विरोध आदि मन के विकारो को शान्त रखना, कर्मोदय से प्राप्त अपनी खराब स्थिति में भी प्रसन्न रहना-अधीर न होना, दूसरे की निन्दा या अपमान नही करना, सब जीवो को अपनी आत्मा के समान प्रिय समझना, क्रोध या दभ से किसी को जरा भी पीडा न पहुँचाना, दीन दुखी को देख कर हृदय का पिघल जाना, यथाशक्य सहायता पहुँचाना, अपने साथी की उन्नति देखकर हर्ष से गद्गद हो उठना, इत्यादि सुन्दर-से-सुन्दर पथ्य का आचरण करना भी अत्यावश्यक है।" प्राचार्य हरिभद्र ने धर्म-सिद्धि की पहचान बताते हुए ठीक ही कहा है
औदार्य दाक्षिण्य, पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोध । लिङ्गानि धर्मसिद्ध प्रायेण जन-प्रियत्व च ।।
-~षोडशक, ४१२